________________
चन्दनाष्टकम् । ३९
निर्मल एवं स्वेत वस्त्र धारण करने वाली, पवित्र आचरण की प्रतिमा, दयापूर्ण हृदय की स्वामिनी तथा सैदव मुस्कानयुक्त मुखमण्डल वाली आचार्य श्री चंदना जी के उज्ज्वल मुख को देखकर चकोर की भाँति भक्त दिव्य अनुभूति कर कर सभी प्रकार की तृष्णाओं से मुक्त हो जाता है।
... मनसि वचसि काये पुण्यपीयूषपूर्णा
सकलजनमनांसि सर्वदा प्रीणयन्ती। परदुःखपरमाणुं पर्वतं मन्यमाना
सतत-हरणशीला सर्वथाऽनन्यचित्ता ॥ ४॥ मन, वाणी तथा कर्म में पुण्यामृत को धारण करने वाली, समस्त लोगों के मन को सदा प्रसन्न रखने वाली, दूसरों के छोटे से छोटे दुःख को भी पर्वत के समान बड़ा समझकर, अनन्यचित्त से उसे पूर्ण रूप से दूर करने में आचार्य श्री सदा तत्पर रहती है।
बहुजनहितकाम्या खिद्यमाना सदैव सकलविकलसेवा-पूतकार्ये निमग्ना । विचरति नहि चिन्ता स्वात्ममोक्षादिलाभे
परहित निरता सा त्यक्त स्वार्थावबोधा ।। ५॥ अनेक लोगों के हित के लिए सदा स्वयं कष्ट उठाने वाली तथा सम्पूर्ण दुःखी प्राणियों की सेवा के पवित्र कार्य में निरत आचार्य श्री को मोक्षादि के विषय में कोई चिन्ता नहीं है तथा स्वार्थ-सिद्धि का विचार छोड़कर सदैव परहित में लगी रहती है।
प्रकटितपरप्रेमा निःस्पृहाऽतानचक्षुः शमित विकृतिवाता: यत्र नान्तर्बहिश्च । निहित-निखिल मोहा दग्धकोपादिदोषा
गलिततिमिरमाला शुभ्रतेज:प्रकाशा॥ ६॥ दूसरों पर प्रेम रखने वाली, स्वयं नि:स्पृहा आचार्य श्री के नेत्र स्निग्ध हैं, इन्होंने विकारों की आँधी को शान्त कर दिया है, इनका बाहर-भीतर एक समान है, इन्होंने समस्त मोहादि को नष्ट कर कोप आदि दोषों को दूर कर, अज्ञान के अंधकार को छिन्न-भिन्न कर दिया है तथा निर्मल तेज से सदा प्रकाशित हैं।
दुरितदहनदक्षा पादपद्माश्रितानां परहितकरणाय प्राणप्रच्छेद-प्रीता।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org