Book Title: Mahavirashtak Pravachan
Author(s): Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 44
________________ अमराष्टकम् -प्रोफेसर राममोहन दास ___एम्-ए, पी. एच-डी, डी. लिट् छन्द : भुजंगप्रयात अराग: अद्वेष: अकोप: अचिन्त:, अरोग: अभोग: अदीन: अहीनः । सदा नि:स्पृहो भावलीन: समाधौ, जितक्षोभमाया ममत्वादिदोषः ॥ १॥ राग, द्वेष, कोप, चिन्ता, रोग, भोग, दीनता, हीनता आदि समस्त विकारों से मुक्त, सदैव नि:स्पृह, समाधि में लीन तथा क्षोभ, माया, ममत्व आदि दोषों के (उपाध्याय श्री अमरमुनि जी महाराज) विजेता थे। प्रशान्तः प्रबुद्ध सदात्मानुरागी, अनासक्तयोगी वियोगि-स्व-बन्युः । जराजन्मदावानलवारिवाहः करे दंड-धारी दयापूर्णचित्तः ।। २ ।। वे प्रशान्त, प्रबुद्ध तथा सदैव आत्मप्रेमी थे। आसक्तिरहित योग-साधक एवं दीन-दुःखियों के बंधु थे। जरा एवं जन्मरूपी दावानल को शान्त करने वाले मेघ थे। हाथ में सदैव दण्ड धारण करते हुए भी उनका हृदय करुणा से परिपूर्ण था। · निरीह अमानी गुणागार-रूपः, जगत्पारकर्ता महन्नाविकोऽसौ। प्रसन्नाननः सर्वनाथः प्रकृष्टः सदा सज्जनानन्ददाता दयालुः ।। ३ ।। वे निराकांक्ष, निरभिमान, गुणों के आगार तथा संसार-सागर से पार कराने वाले महान् नाविक थे। सदा प्रसन्नमुख, सबके रक्षक, श्रेष्ठ दयालु तथा सज्जनों के सदैव आनन्ददाता थे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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