Book Title: Mahavirashtak Pravachan
Author(s): Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 28
________________ मरे, महावीराष्टक - प्रवचन | १९ मर-मरकर जिए । किन्तु वह ज्योति / ज्ञान - ज्योति आज भी जी - जीकर प्रज्वलित है । मन के सघन अन्धकार में, अमावस्या के अंधेरे में उस ज्योति की एक किरण भी उतर आई तो मन का अंधेरा कहाँ रह पाता है ? उजाले ही उजाले में मन की कड़वाहट कहाँ गायब हो जाती है, पता भी नहीं चलता । माधुर्य ही माधुर्य भर जाता है । अमावस्या पूनम में बदल जाती है, चिलचिलाती धूप चाँदनी में बदल जाती है । उस वाणी की ज्योति का स्पर्श पाकर शीतल मन में प्रभु-स्मृति की प्रकाश-किरण उतर आई । प्रभातवेला में / प्रकाश के अवतरण की वेला में भक्ति - भरे स्वरों में हमने भक्ति की है : यदर्चाभावेन प्रमुदितमना दर्दुर इह क्षणादासीत् स्वर्गी गुण-गण-समृद्ध सुख-निधिः लभन्ते सद्भक्ताः शिव- सुख- समाजं किमु तदा ? महावीरस्वामी नयन- पथ-गामी भवतु मे || में भक्ति की भाव- धारा बह गई राजगृह के श्रेष्ठी नंदन मणियार के हृदय 1 मणियार, चूड़ी पहनाने वाला नहीं; मणियार का अर्थ है मणिकार, रत्नकार, जौहरी । भगवान् महावीर पधारे हैं, वाणी सुनी उनकी और सत्कर्म के भाव जाग उठे मणियार के मन में । जनहित में बावडी का निर्माण किया, दानशाला खोली, सुंदर उपवन बनाया। यात्रा करते हुए लोग आते, व्यापारी आते, स्नान आदि की व्यवस्था होती, अच्छा भोजन एवं ठहरने को अच्छा स्थान मिल जाता, थकान उतर जाती । धन्य है नंदन मणियार, जिसने इतना बड़ा सत्कर्म किया। दूर- सुदूर देशों में खूब प्रशंसा होने लगी । प्रशंसा तो प्रशंसा है। उसका भी अपना प्रभाव होता है । सत्कर्म करके प्रभु चरणों में अर्पण करो तो प्रशंसा और सत्कर्म की प्रेरणा मिलती है, प्रोत्साहन मिलता है। यह प्रशंसा नहीं, अपितु गुणानुवाद है । सत्कर्म का अनुमोदन है, व्यक्ति-विशेष का नहीं । इतनी स्पष्ट समझ होती है, भक्त की। किन्तु सत्कर्म का अर्पण न हुआ तो प्रशंसा अहं को पुष्ट करती है । नंदन मणियार के साथ यही हुआ । प्रशंसा में 'मैं' बढ़ता गया । प्रभु हटता गया, कर्म 'मैं' का हो गया। पहले निष्काम भाव से हुआ, बाद में कामना जगती गई । भगवान् की स्मृति की जगह बावडी की स्मृति ने ले ली । दान भगवान् को क्या दिया, पत्थरों को दिया। बावडी की सफाई, उपवन का विस्तार - सब होता रहता और एक-एक पत्थर को मन पकड़ता जाता । आसक्ति इतनी बढ़ गई कि मरकर उसी बावडी में मैंढक बना । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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