Book Title: Mahavirashtak Pravachan
Author(s): Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 26
________________ महावीराष्टक-प्रवचन | १७ अभिवादन में आत्मा के तारों का वादन-चारों तरफ से हो रहा है, तार झनझना रहे हैं, एक दिव्य संगीत का अभिवादन हो रहा है। एक मस्ती आ गई, अहंभाव जगा और झुके। आत्मिक भावों के साथ झुके। अब दौड़ना कहाँ, मंजिल पा लेने पर। पर संसार दौड़ रहा है, किसके चरणों में? कोई मतलब नहीं, जहाँ कहीं कुछ मिल जाए, दौड़ चालू है। किन्तु प्रभु ! तू ठहर गया है, स्व में स्थित हो गया है, पथ मिट गए, मंजिल मिल गई। अपने में शिखरायमान है, ऊँचा और ऊँचा उठा है। इतना ऊँचा है कि जिसके आगे कोई और ऊँचाई नहीं; ऐसी परम श्रेष्ठता है, जिससे बढ़कर कोई और श्रेष्ठता नहीं। उस श्रेष्ठता के दर्शन हेतु देवता भी आ रहे हैं, भक्तिभाव से वन्दन-नमस्कार के लिए। । भगवान के दिव्य रूप का दर्शन स्वयं में एक जीवन-दर्शन है। मनुष्य की महानता का प्रेरणासूत्र है। तुम स्वयं महान् बनो ! तुम्हें रोते गिड़गिड़ाते भीख माँगने की जरूरत नहीं। जो भीख में मांग रहा है उसकी पूर्ति असंभव है । पूर्ति हो भी जाए तो वह जीवन के दुःख मिटाने में असमर्थ है। गुलामी से प्राप्त हो गया कुछ। तो गुलामी मिटने वाली नहीं। दीनता से प्राप्त कर भी लो कुछ, तो दैन्य मिटने वाला नहीं। मांग कर पा लिया कुछ, ___ तो मांग मिटने वाली नहीं। धकेल कर पा लिया कुछ तो उससे ऊँचा उठने वाला नहीं। स्वयं में स्वयं को पा लिया, तो राजराजेश्वर बन जाओगे। पुरुषत्व जगा, पुरुषार्थ किया तो परमात्मा बन जाओगे। तभी अशुभ, अशिव, अमंगल, दुःख, सबकुछ मिटनेवाला है। अंधकार की रात में सूर्य का उदय ही रात का विदा होना है। दीवट में ज्योति का जगमगाना ही अंधेरे का पलायन है । प्रभु ! तुम मेरे नयनों की ज्योति हो, सदा मेरे नयनों में समाए रहो। *** Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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