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... भवतु मे
यदर्चाभावेन प्रमुदितमना दर्दुर इह, क्षणादासीत् स्वर्गी गुण-गण-समृध्दः सुख-निधि: लभन्ते सद्भक्ता: शिव-सुख-समाजं किमु तदा?
महावीर स्वामी नयन-पथ-गामी भवतु मे ॥ ४॥ जिनकी साधारण-सी स्तुति के प्रभाव से जब नन्दन मैंढक जैसे तुच्छ भक्त भी, क्षणभर में, प्रसन्नचित्त होकर अनेकानेक सद्गुणों से समृद्ध, सुख के निधि स्वर्गवासी देवता बन जाते हैं, तब यदि भक्त-शिरोमणि मानव मोक्ष का अजर-अमर आनन्द प्राप्त कर ले, तो इसमें आश्चर्य ही किस बात का? इस प्रकार परम दयालु भगवान् महावीर स्वामी सर्वदा मेरे नयन-पथ पर विराजमान रहें अर्थात् मेरे नयनों में समा जाएँ।
आज के इन क्षणों में अन्तश्चक्षु से तीर्थंकर भगवान् महावीर के समवसरण को देख रहे हैं, जहाँ अमृत-गंगा बही। उस अमृत-गंगा के दर्शन के लिए अपनी-अपनी भूमिका के अनुसार सभी आए। देव-दानवों के बीच परस्पर शत्रुता है, वैर है किन्तु सहोदर बंधुओं के समान समवसरण में उपस्थित हैं। सम्राट् तो मानो अहंकार का शिखर है। बाहर तो राजा राजा है, भिखारी भिखारी है किन्तु समवसरण में तो राजा और रंक दोनों बंधु हैं । पशु-पक्षी जिनमें जाति-वैर है वहाँ साथ-साथ उपस्थित हैं। सिंह-हिरण बैठे हैं। न हिरण को सिंह की हिंसावृत्ति से कोई भय है। इस रूप को हृदय की आँखों से पिया-सुधर्मा ने । संकलित किया शास्त्रों को इन आँखों के माध्यम से पढ़कर । उसका साक्षात् रूप अन्तश्चक्षु-पथ में प्रकट हुआ है। एक-एक वचन, एक-एक दृश्य इतना महान् है कि ज्ञाता-द्रष्टा को भाव स्थिति में पहँचा दे। उत्थान-पतन का इतिहास है। महाकाल के प्रवाह में न जाने कितने सम्राट आए और चले गए। कितने सिंहासन पर स्थित हए और कितने सिंहासन डोले। कितनी जाति-प्रजातियाँ पैदा हुईं और मिट गईं। अस्तित्व तक नहीं रहा। कितनी परम्पराएं आईं और बिखर गईं, फिर भी अमृत-वाणी आजभी प्राणवान् है। हम बहुत बिखरे, बहुत टूटे, बहुत बार
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