Book Title: Mahavirashtak Pravachan
Author(s): Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 30
________________ ................ भवतु मे कनत्स्वर्णाभासोऽप्यपगततनुर्ज्ञान-निवहो, विचित्रात्माऽप्येको नृपतिवर-सिद्धार्थ-तनयः । अजन्माऽपि श्रीमान् विगत-भवरागोऽद्भुतगति: महावीर स्वामी नयन-पथ-गामी भवतु मे ॥ ५॥ जो तप्त स्वर्ण के समान उज्ज्वल कान्तिमान् होते हुए भी अपगत तनु-शरीर के मोह से रहित थे, ज्ञान के पुंज थे, विचित्र आत्मा, विलक्षण आत्मा होते हुए भी एक अद्वितीय थे। राजा सिद्धार्थ के पुत्र होते हुए भी अजन्मा-जन्म-रहित थे। श्रीमान्–शोभावान होते हुए भी संसार के राग से रहित थे, अद्भुत ज्ञानी थे, ऐसे भगवान् महावीर स्वामी सर्वदा मेरे नयन-पथ पर विराजमान रहें, अर्थात् मेरे नयनों में समा जाएं। प्रात:काल की मंगलमय प्रार्थना की वेला है। प्रभु-स्मरण का, भगवद्-पूजन का, अर्चन का यह मंगलमय समय है। ऐसे पवित्र समय में मन का कण-कण परमात्मा की दिव्य स्मृति से जगमगा जाता है। पवित्रता की ऊँचाइयों को छूता जाता है। ऐसी भाव-स्थिति अन्य किसी समय पर नहीं होती जो प्रार्थना के समय हो जाती है। समुद्र से जल भाप बनकर ऊपर उठता है, ऊपर और ऊपर चला जाता है, बादल बन जाता है। हवा पर सवार हो नील मगन में फैल जाते हैं बादल। फिर बरसने को होते हैं-प्रार्थना में भाव ऐसा ही ऊँचा उठता है, विस्तार पाता है, बरसने को होता है और बरसता भी है। इसीलिए प्रार्थना का अर्थ थोड़ा समझ लेना जरूरी है। __आम तौर पर प्रार्थना का अर्थ किया जाता है-मांगना, याचना करना। किन्तु प्रार्थना का लेन-देन से कोई संबंध नहीं। न वहाँ कोई स्वामी है, न कोई सेवक, न दाता है न याचक, न देने का अहं, न मांगने की दीनता। प्रार्थना का अर्थ है-"प्रकर्षेण अर्थं प्राप्नोतीति प्रार्थना" विशेष रूप से अर्थवान् होना प्रार्थना है। जीवन का मूल्य, जीवन का सार प्राप्त होना प्रार्थना है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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