Book Title: Mahavirashtak Pravachan
Author(s): Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 14
________________ ................. भवतु मे यदीये चैतन्ये मुकुर इव भावाश्चिदचितः, समं भान्ति ध्रौव्य-व्यय-जनि-लसन्तोऽन्तरहिताः । जगत्-साक्षी मार्ग-प्रकटनपरो भानुरिव यो, महावीर-स्वामी नयन-पथ-गामी भवतु मे ॥१॥ जिनके केवल ज्ञान-रूपी दर्पण में उत्पाद, व्यय और धौव्य त्रिविध रूप से युक्त अनन्तानन्त जीव और अजीव पदार्थ एक साथ झलकते रहते हैं; जो सर्य के समान जगत् के साक्षी हैं और सत्य-मार्ग का प्रकाश करने वाले हैं, वे भगवान् महावीर स्वामी सर्वदा मेरे नयन-पथ पर विराजमान रहें। यह सहज प्रस्फुटित काव्य है। तभी तो गहन गंभीर तत्त्वदर्शन एवं चिंतन की गहराई, भक्तिभाव से भरपूर इन थोड़े से शब्दों में व्यक्त हुई है। विश्व की अनंतानंत आत्माएँ मूलत: ज्ञानस्वरूप हैं। आत्मा की यह विशिष्ट ज्ञान-शक्ति ही अनंतानंत जड़ पदार्थों से आत्मतत्त्व का पृथक्करण करती है। किंतु आत्माओं की ज्ञानशक्ति की हानि-वृद्धि होती रहती है, एकस्वरूपता नहीं रहती है। इसका कारण है, ज्ञानावरण कर्म का उदय । ज्ञानावरण कर्म ज्ञानज्योति को . न्यूनाधिक रूप से आच्छादित किए रहता है। उच्चतर निर्विकल्प ध्यान-साधना की भूमिका पर पहुँचने पर ज्ञान-शक्ति पूर्णतया निरावरण हो जाती है। शास्त्रीय भाषा में ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अंतराय ये चार घातिकर्म हैं जो आत्मा के शुद्ध स्वरूप का घात कर देने वाले हैं। जब साधक चारों घातिकर्मों से मुक्त हो जाता है, अन्य शक्तियों के शुद्ध होने के साथ ज्ञानशक्ति भी पूर्णतया, सर्वथा निरावरण स्थिति में पूर्णरूपेण शुद्ध हो जाती है। ज्ञान की इस स्थिति को 'केवल ज्ञान' कहते हैं। केवल ज्ञान, देश और काल की किसी भी सीमा में अवरुद्ध नहीं होता। वह सदा-सर्वदाकाल के लिए अनंत हो जाता है। . विश्व के अर्थात् लोकालोक के समग्र चैतन्य और जड़ पदार्थ अपने-अपने अनंत गुण और पर्यायों के साथ केवल ज्ञान की इस अनंत ज्योति में एक साथ झलक उठते हैं। अज्ञात जैसी कोई भी वस्तु शेष नहीं रहती है। आचार्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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