________________
४ | महावीराष्टक-प्रवचन
अद्याभवत् सफलता नयनद्वयस्य, देव! त्वदीय चरणाम्बुजवीक्षणेन । अद्य त्रिलोकतिलक ! प्रतिभासते मे,
संसारवारिधिरयं चुलकप्रमाणम् ॥ आज नयन पाने की सफलता मिली है। आपश्री के दर्शन पाए, अब तो अनंत संसार-सागर भी मेरे लिए चुल्लूभर रह गया।
यह भाट चारणों की वाणी नहीं है। यह खुशामद नहीं है। स्वामी के साधारण जीवन को महान् बनाकर उससे कुछ पाने की कामना नहीं है। भक्ति की सहज तल्लीनता ऐसी अनोखी है कि प्रभु आँखों में समा गए, उस भक्त की यह वाणी है।
सितार के तार स्वरों से भरे होते हैं। अंगुलियां छू जाती हैं, तार झनझनाते हैं और बस, मधुर संगीत बज उठता है। भक्तिप्रवण हृदय में प्रभु की स्मृति आई और काव्य प्रस्फुटित हुआ।
***
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org