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१४ । महावीराष्टक-प्रवचन हैं तो भोग-प्रधान संस्कृति ही महान् है। इस संबंध में भगवान् महावीर क्या दृष्टि रखते हैं?
भगवान् महावीर का दर्शन मानव की महत्ता का दर्शन है। वे देववादी नहीं, मानववादी हैं। उनका कहना है-सदाचारी, संयमी मानव देवों से भी ऊँचा है।
मनुष्य श्रेष्ठ है, किन्तु मनुष्य के रूप में पशुता आ जाए; मनुष्य की देह तो है पर कर्म में, जीवन में पाशविक वृत्तियां काम कर रही हैं तो वह मात्र देहधारी मनुष्य श्रेष्ठ नहीं। ___मनुष्य शरीर-रूप में एक दीवट है। इस मिट्टी के दीवट में धर्म की ज्योति जले, अन्धेरे में प्रकाश दे तो वह महान् है । देवता भी नतमस्तक हैं उस महानता के सम्मुख । मनुष्य प्रज्वलित दीपक है तो देवता भी चरणों में झुकेंगे। विकारों की, कषायों की दलदल में से निकलकर ऊँचाई पर पहुँचोगे तो स्वर्ग उतर आएगा। ये ऊँचाईयाँ पार्थिव नहीं, आत्मिक हैं । कर्मबन्धन की स्थिति इसे और स्पष्ट करती है।
पाप के अशुभ भावों में पहले कभी नरकाय का बन्ध हो गया और बाद में धर्मज्योति जगी, सम्यग् दृष्टि हो गया तो भी पूर्व-बद्ध आयु-कर्म के अनुसार वह मरकर नरक में जाता है। जैसे सम्राट् श्रेणिक सम्यग् दृष्टि है किन्तु आयु का बन्ध पहले होने से नरक में गया। . दूसरी ओर इक्कीसवें देवलोक में कोई मिथ्यादृष्टि है। स्वर्ग के सुख में है किन्तु मिथ्यादृष्टि है । और नरक की वेदना में है किन्तु सम्यग् दृष्टि है। कौन श्रेष्ठ है दोनों में? दोनों में जो सम्यग् दृष्टि है, भले वह नरक में हो, श्रेष्ठ है । देव होने से क्या है?
यह केवल एक आदर्श नहीं था, अपितु यथार्थ सत्य था—महावीर का। एक बार तीर्थंकर महावीर दशार्णदेश पधारे । महवीर के भक्त राजा दशार्णभद्र ने भाव-विभार हो भगवान् का अत्यन्त हर्ष-उल्लास के साथ स्वागत किया। राजा के साथ देशवासी भी अपने वैभव को अर्पण करते हुए स्वागत में भक्ति-भाव में विभोर हो उठे। लग रहा था—स्वर्ग का समग्र ऐश्वर्य बिखर गया है सब ओर। तब देवराज इन्द्र ने स्वर्गीय वैभव का मुक्त प्रदर्शन कर उसे अपमानित करने की भूमिका रची। राजा दशार्णभद्र समवशरण में भगवान् के श्री-चरणों में पहुँचकर भगवत्-वाणी का श्रवण कर रहे थे। भगवान् की धर्मदेशना प्रवाहित थी—मानव महान् है, अपने में सोए हुए दिव्य-भाव को जगा लेता है। अहिंसा, संयम और तप की धर्मज्योति जिसके जीवन में प्रज्वलित होती है, उसके लिए धरती का तो
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