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हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन
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उदाहरणों की उपस्थिति करने का अर्थ यह नहीं की वैदिक और श्रमण समाज एक साथ नहीं रह सकते । इसका अभिप्राय केवल इतना ही है कि जीवन की ये दो वृत्तियाँ विरोधी आचार और विचार को प्रकट करती हैं । ये दोनों धाराएँ मानव-जीवन के भीतर रही हुई दो भिन्न स्वभाववाली वृत्तियों की प्रतीक मात्र हैं ।
वैदिक परम्परा का उपलब्ध मान्य साहित्य वेद हैं । वेद से हमारा अभिप्राय भाग से है जिसमें मंत्रप्रधान संहिता है । यही परम्परा मूल में वैदिक मान्यताओं के आसपास शुरू और विकसित हुई है । वैदिक मंत्रो और सुक्तों की सहायता से नाना प्रकार की प्रार्थनाएँ एवं स्तुतियाँ की जाती है। तथा वैदिक मंत्रो द्वारा होनेवाले यज्ञ आदि कर्म भी वैदिक क्रिया हैं कहलाता है।
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श्रमण परम्परा :
यह धारा मानव के उन गुणों का प्रतिनिधित्व करती है जो उसके वैयक्तिक स्वार्थ से भिन्न है । दूसरे शब्दों में श्रमण परम्परा साम्य पर प्रतिष्ठित है । यह साम्य मुख्य रुप से तीन बातों में देखा जा सकता है.
(१) समाज विषयक (२) साध्य विषयक (३) प्राणी जगत के प्रति दृष्टि विषयक | १ समाज विषयक सामान्य का अर्थ है समाज में किसी एक वर्ण का जन्मसिद्ध श्रेष्ठत्व या कनिष्ठत्व मानना । श्रमण संस्कृति समाज - रचना एवं धर्म विषयक अधिकार की दृष्टि से जन्मसिद्ध वर्ण और लिंगभेद को महत्व न देकर व्यक्ति द्वारा समाचरित कर्म और गुण के आधार पर ही समाज-रचा करती है। उसकी दृष्टि में जन्म का उतना महत्व नहीं है जितना कि पुरुषार्थ और गुण का । मानव समाज का सही आधार व्यक्ति का प्रयत्न एवं कर्म है, न कि जन्मसिद्ध तथा कठिन श्रेष्ठत्व । केवल जन्म से कोई श्रेष्ठ या हीन नहीं होता । हीनता और श्रेष्ठता का वास्तविक आधार स्वकृत कर्म है । साध्यविषयक साम्य का अर्थ है - अभ्युदय का एक समान रुप । श्रमण संस्कृति का साध्य विषयक आदर्श वह अवस्था है जहाँ किसी प्रकार का भेद नहीं रहता । वह एक ऐसा आदर्श है जहाँ ऐतिहासिक पारलौकिक सभी स्वार्थो का अंत हो जाता है । वहाँ न इस लोक के स्वार्थ सताते हैं, न पर लोक का प्रलोभन व्याकुलता उत्पन्न करता है। वह ऐसी साम्यावस्था है जहाँ योग्यता और अयोग्यता, अधिकता तथा न्यूनता, हीनता और श्रेष्ठता - सभी से परे हैं । प्राणी जगत के प्रति दृष्टि-विषयक साम्य का अर्थ है- जीव जगत
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जैन धर्मका प्राण, पृ. १
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