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हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन
द्वारा होनेवाले निर्लज्ज शोषण का शिकार बना हुआ था । उसी का साक्षात् चित्रण कवि
"वीरायण" काव्य में किया है
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भाई के आगे बहिन लुटी, हत्यारों को कुछ होश न था । शिशुओं को भालों से गोदा, तलवारों को कुछ होश न था, मानवता नंगी कर डाली, धर्मान्धों की मन चाहीने । भारतमाता को घेर लिया, धर्मो की घोर तबाही ने ॥ १
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तीर्थंकर पार्श्वनाथ के पश्चात् यज्ञीय क्रियाकाण्डों ने मानवता को संत्रस्त कर दिया था । आलोक की धर्मरेखा धुंधली होती जा रही थी और जीवन का अभिशाप दिनानुदिन बोझिल हो रहा था ।
तत्कालीन धार्मिक जीवन के खोखलेपन, धार्मिक मठाधीशों की ठेकेदारी, मनुष्य और ईश्वर के मध्य तथाकथित दलालों की घुसपेठ आदि का पर्दाफाश करते हुए भगवान महावीर ने मानवीय प्रेम और करुणा की गंगा बहाई ।
महावीर की दृष्टि में इश्वर सृष्टि का कर्ता-धर्ता नहीं है । वह तो मात्र एक ऐसी दिव्य आत्मा है जिसने स्वयं को कर्मों के बंधनों से मुक्त कर लिया है तथा सिद्धावस्था प्राप्त कर ली है। ईश्वर का जनतन्त्रीकरण करते हुए महावीरने हर विशुद्ध आत्माकों ही ईश्वर के रूपमें प्रतिष्ठित किया। महावीर ने अपनी इस अवधारण में नारी, पुरुष, आर्य, अनार्य तथा जातिगत भेदों को समाप्त करके धर्म के ऐसे स्वरूप का दिग्दर्शन कराया जो "सर्व जन हिताय" तथा " सर्वजन सुखाय' था । वस्तुतः तत्कालीन समय की माँग थी ।
धर्म के क्षेत्र में उस समय उच्छृंखला फैल गई थी । अनेक व्यक्ति अपने को तीर्थंकर कहने लगे थे । कोई कहता कि भौतिकता ही जीवन का चरम लक्ष्य है, कोई त्राण में कहता था कि अक्रिया ही धर्म है और कोई अकर्मण्यता को ही धर्म घोषित करता था । स्वर्ग, नरक बिक रहे थे और धनिकवर्ग लम्बे लम्बे रकमें देकर अपना स्वार्थ सुरक्षित कर रहे थे । अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह और मैत्री जैसी उदात्त भावनाएँ खतरे में थी। सर्वोदय का स्थान वर्गोदय ने ले लिया था और धर्म एक व्यापार
बन गया था ।
"वीरायण" : कवि मित्रजी, "पृथ्वी पीड़ा", सर्ग - २, पृ. ६४
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