Book Title: Mahavira Prabandh Kavyo ka Adhyayana
Author(s): Divyagunashreeji
Publisher: Vichakshan Prakashan Trust

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Page 246
________________ २३१ हिन्दी के महावीर प्रबन्ध काव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन ईश्वर पृथक् नहीं होते हैं, अज्ञानी ही लड़ जाते । मठाधीश निज स्वार्थ हेतु ही, भेद बताकर लड़वाते।' *** कर पद कंजन के गाभा थे, शुचि रुप मूर्तिमय आभा थे। २ *** सदा स-स्थावर रुप विश्व में, समस्त प्राणी-गण रक्षणार्थे जो। किया गया पालन इन्द्रियार्थ हो, प्रसिद्ध है संयम अंग धर्म का। ___ *** दक्षिण में था सौधर्म अन्य सिंहासन तारक मणियों से जटित-खचित मणि कांचन ॥ *** उर्जना, भचक्र, ज्योतिर्झख, कलंब, एण, कमंध, तति, कलबिंग, वरण्ड, वप्र, वहिन, चिमि, कुलाय, तल्प, यमणाख्य, रजस्क, केदार, काकोल, हेति, झषझारि, अत्यंत, कखगा, अनगार, ग्राव और कर्पट आदि क्लिष्ट शब्द काव्यों में सर्वत्र देखने को मिलते है। इस के अतिरिक्त महावीर काव्यों में कवियों ने अप्रयुक्त शब्दों का भी प्रयोग किया हैं जो हम इन शब्दों से अनभिज्ञ हैं, ऐसे कुछ शब्द य हैं - पिशंग, तति, वप्र, तल्प, हेति, कषा, जवी, बंजुल, जतूक, कनीनिका, पवित्र की, मन्यु, कषा, ग्राव, लूता, कखगा, चुक, पयाल, आनद्ध, पौगंड, सहा, बस, केदार, अक्षय्य, भिया, स्वैरिणी, कृतांत, बार, श्रुति, अनवद्य, त्रसेरणु, अंशु, सुवायिका, परिमेय आदि। ***** १. "भगवान महावीर" : कवि शर्माजी, सर्ग-१, पृ.१४ "भगवान महावीर" : कवि शर्माजी "दिव्य शक्ति अवतरण", सर्ग-३, पृ.३५ “वर्द्धमान' : कवि अनूपशर्मा, पद. सं. १०५, पृ.४६५ "तीर्थंकर महावीर” : कविगुप्तजी, सर्ग-१, पृ.१६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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