Book Title: Mahavir Vani
Author(s): Shreechand Rampuriya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 6
________________ आशीर्वचन महावीर साधना काल में मौन रहे । उनका साधना काल साढ़े बारह वर्षों का था। उस अवधि में वे बोलने के रूप में नहीं बोले। क्योंकि वे भावी तीर्थकर थे। वे तब तक बोलना नहीं चाहते थे जब तक उनका ज्ञान ही वाणी न बन जाए। उनकी साधना सफल हुई। अज्ञान का आवरण दूर हुआ। उनकी आत्मा ज्ञानमय बन गई। केवलज्ञान का सूर्य उगा। उनका आभामण्डल और अधिक आलोकित हुआ। उनकी वाणी स्फुरित हुई। पर उनकी अंतहीन ज्ञान रश्मियों को अभिव्यक्ति देना उनके लिए भी असंभव था। सत्य से पवित्र बनी और अनुभूतियों से छनकर निकली उनकी वाणी को गणधरों ने ग्रहण किया। तीर्थंकर जितना बोले, उतना गणधर पकड़ नहीं पाए। उन्होंने जितना पकड़ा उतना सुरक्षित नहीं रह सका। जितना सत्य सुरक्षित रहा उसके आधार पर आगमों की रचना हुई। आज हमारे पास महावीर-वाणी का मूल स्रोत उनके गणधरों द्वारा गूंथे हुए आगम महावीर-वाणी में निहित सत्य का आलोक लोक-जीवन तक पहुंचे, यह आवश्यक था। इसके लिए उसके सारभूत प्रसंगों को संकलित करने की योजना बनी। संकलनकर्ता की दृष्टि जितनी पारदर्शी होती है, संकलन उतना ही उपयोगी बन जाता है। संकलन करने वाला एक बार वाङ्मय बन जाए तो उसमें श्रेष्ठता लाई जा सकती है। __ "जैन विद्या मनीषी श्रीचंदजी रामपुरिया तेरापंथ समाज के गंभीर अध्ययनशील और विशिष्ट सूझ-बूझ वाले व्यक्ति हैं। स्वाध्याय और लेखन दोनों उनकी रुचि के विषय हैं। शोध परक दृष्टिकोण के साथ ये साहित्य के क्षेत्र में कार्यरत हैं। इन्होंने केवल जैन आगम और तेरापंथ साहित्य पर ही काम नहीं किया गीता, महाभारत, गांधी दर्शन आदि अनेक विषयों पर इन्होंने काफी काम किया है। दिन में सतत् स्वाध्याय करते हैं, रात्रि में एक बार सोकर उठने के बाद लगभग दो घंटे लिखते हैं। इनकी इस कार्य शैली को अवस्था भी प्रभावित नहीं कर सकी है। भगवान् महावीर के २५सौवें निर्वाण महोत्सव पर रामपुरियाजी द्वारा संकलित महावीर वाणी पुस्तक का प्रकाशन हुआ। सरल भाषा में हिंदी अनुवाद साथ रहने से पुस्तक की उपयोगिता बढ़ गई। पाठकों ने उसे पसंद किया। अब उसका दूसरा संस्करण सामने आने वाला है। पाठक महावीर-वाणी की गहराई में उतरकर अपने जीवन को नई दिशा देते रहें। जैन विश्व भारती, लाडनूं गणाधिपति तुलसी ५ जनवरी १६६७

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