Book Title: Mahaguha ki Chetna
Author(s): Lalitprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 20
________________ हो? जानते हो तुम क्या कर रहे हो? जब तक तुम्हारे अंदर मिट्टी और सोने का भेद कायम है तब तक तुम जीवन की दिव्यता को कैसे पहचान पाओगे। पत्नी पति को संदेश दे रही है। कितनी मार्मिक घटना है-करुणापूर्ण भी। मन किसी का चलायमान हुआ और स्थिरता का संदेश किसे मिला। उसने कहा-तुम नहीं देख रहे अंततः मिट्टी को मिट्टी से ढका जा रहा है और तुम्हारी चेतना इसमें मुस्करा रही है। आज के सूत्र हमारे जीवन में उठने वाली उन्हीं तरंगों का प्रतिपादन है कि जहाँ सोने और मिट्टी की भेदरेखाएँ शुरू होती हैं, वहाँ से संसार भी शुरू हो जाता है। उसके राग और आसक्ति के सम्बन्ध जुड़ने शुरू हो जाते हैं। मैं और मेरेपन के भाव से यह डोर मजबूत होती जाती है। जहाँ आसक्ति और ममत्व-बुद्धि के तार जुड़ते हैं, वहाँ उसका मन प्रतिबिम्बित होने लगता है। उसके विचार और कर्म उसी ओर गति करते हैं, जहाँ ममत्व-भाव रहता है। एक व्यक्ति जो ध्यान की गहराई में प्रवेश करना चाहता है, उसकी गहराई के द्वार पर भी ममत्व का पहरा रहता है और यह प्रहरी उसे बार-बार संसार में खींच लेता है। कभी-कभी तो ऐसा भी होता है कि व्यक्ति ध्यान के अन्तिम चरण में पहुँच रहा होता है, लेकिन आसक्ति का छिलका उसके पाँव तले आ जाता है और वह फिसलकर शिखर से नीचे की सीढ़ी पर आ गिरता है। वर्षों की साधना एक आसक्ति के कारण विफल हो जाती है। ये आसक्तियाँ किसी भी तरह की हो सकती हैं। तुम्हारे कषाय, राग-द्वेष, ममत्व, क्रोध, मद, मान, माया, लोभ किसी के भी हो सकते हैं। इनमें से एक भी शूल अगर तुम्हें चुभता रहता है, तो जन्मों-जन्मों की साधना के बाद भी तुम वहीं-के-वहीं रह जाओगे। शिखर पर पहुँच कर भी ये शूल तुम्हें शिखर का स्वामी नहीं बनने देंगे। मौका पाते ही धकेलकर साधना व्यर्थ कर देंगे। आवश्यकता है जिंदगी में ध्यान को जगाने की। पापड को कितने ध्यान से सेंकना होता है, जरा-सा चूके नहीं कि पापड़...! तुम फिल्म भी कितने ध्यान से देखते हो, कोई थोड़ा-सा शोरगुल मचा दे, तो बेचैन होने लगते हो। यह ध्यान, यह सजगता तो बहिर्मखी है। इसे अंदर की ओर ले जाओ। इतनी सतर्कता अपने जीवन के प्रति रखो। जगाओ अपनी अन्तस् शक्ति को, अपनी भीतर की ऊर्जा को, तब भीतर की झंकार को सुन सकोगे, भीतर के नाद को सुन सकोगे, वहाँ जो रसधार है उसका पान कर सकोगे। अन्यथा तुम्हारी चेतना जड़ और भौतिक पदार्थों में, संसार और पुद्गलों में इतनी घुलमिल गई है कि तुम्हारे चैतन्य अस्तित्व का तो कुछ पता ही नहीं चलता। हमारी इन्द्रिया बहिर्मुखी हैं और ये इन्द्रियाँ जो ग्रहण करती हैं वही भीतर जाता है। आँखों बाँहों भर संसार : : 11 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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