Book Title: Mahaguha ki Chetna
Author(s): Lalitprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 36
________________ अगर तुम्हारे मन में ऐसा कोई भाव जग भी जाए तो तुम बहाने ढूंढने लगते हो और वापस संसार में लौट जाते हो। हर शुभ कार्य को कल पर टाल देते हो और वह कल 'आज' तक कभी नहीं आ पाता। इसलिए हर अच्छे काम को आज करने की कोशिश करें और हर बुरे काम को कल पर टालो। बुराई को जितना टालते रहोगे, उतना ही लाभ है और अच्छाई को जितना नजदीक लाओगे, उसमें लाभ है। यह नहीं कहा कि 'करनी' हर दिन करो बल्कि 'शुभ करनी' । वे पावन कृत्य प्रतिदिन करो जिनके करने से तुम्हारी चेतना पवित्र और निर्मल हो जाए। 'सातों दिन भगवान के फिर कैसा आराम'-चाहे तेरस हो या तीज-दिन में कभी फर्क नहीं होता है। फिर किस बात का विश्राम ले रहे हो। लेकिन नहीं, हमारा आलस्य, हमारा प्रमाद इतना अधिक है कि हमने भगवान का नाम लेना भी छोड़ दिया है। लोग मिलेंगे और बातचीत करेंगे अपनी व्यस्तता की, लेकिन मैं जानता हूँ जिनके पास कुछ काम ही नहीं है वे भी अपने को व्यस्त बनाए रखने का आडम्बर रचेंगे। ऐसे-ऐसे काम करेंगे जिनका कोई अर्थ नहीं है फिर भी व्यस्त नजर आने के लिए कुछ-न-कुछ तो करना ही है। सूत्र का पहला सबक है भीतर में रहने वाले आलस्य को अप्रमत्तता में बदलने की कोशिश करो। मुझे याद है : एक व्यक्ति ने दूसरे व्यक्ति को पत्र दिया और कहा भैया, तू जी.पी.ओ. की ओर जा रहा है इस पत्र को पोस्ट कर देना। पन्द्रह दिन बाद उन दोनों का फिर से मिलना हुआ और उसने अनायास पूछ लिया क्यों भाई पत्र तो पोस्ट कर दिया था न। वह कहने लगा-कमाल के आदमी हो अगर इतनी ही जल्दी है तो लो खुद ही डाल लेना। पन्द्रह दिन बाद भी! इसलिए कहा कि आलस्य त्यागें। प्रतिदिन प्रातःकाल संकल्प लो कि आज कोई न कोई अच्छा काम करेंगे। एक संकल्प रोज लो और उसे प्राणपण से पूर्ण करो। रोज कोई न कोई शुभ कार्य करने का प्रयास करो। रोज का एक शुभ काम तुम्हारे लिए अक्षय सागर बन जाएगा। लेकिन हो सब उलटा रहा है। तुम उपवास कर लेते हो तो रात भर नींद नहीं आती। कल सुबह क्या खाओगे, क्या पीओगे, इसके विचार चलने लगते हैं। सुबह तो हुई नहीं और खाने के विचार आने शुरू हो जाते हैं। विचारों की चंचलता मनुष्य की चेतनागत दुर्बलता है। मानव मन की दुर्बलता है। सुबह उठते ही अगर संसार की आकांक्षाएँ, संसार की कामनाएँ और वासनाएँ मंडराने लगती हैं तो इसका अर्थ है कि तुम मानसिक रूप से विक्षिप्तता की ओर बढ़ रहे हो। तुम्हारी चेतना और विचार सातों दिन भगवान के : : 27 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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