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यही स्वभाव मन का है। हलचल होगी, तो धुंधलापन छायेगा। और शांत होते ही स्वतः स्वच्छ हो जायेगा। सीधा-सादा सिद्धान्त है—एक काम करके दूसरे काम में प्रवेश करो, तो पहले काम से मुक्त हो जाओ। हमारी स्थिति तो बड़ी विचित्र है। जो व्यावसायिक चिन्तन रात को सोते समय चल रहा था, सुबह आँख खुली तो वही चिंतन जारी। रात में दो बजे आँख खुल गई, तो वही चिंतन । कभी झुंझलाहट नहीं आती कि सारा जीवन ही व्यावसायिक हो गया है ? आखिर जीवन के लिए, स्वयं के लिए भी मनुष्य को कुछ करना होता है।
मन की दो अवस्थाएँ हमें स्पष्टतः दिखाई देती हैं-समन और अमन । समन यानी मन का होना और अमन यानी मन का न होना। हमारी जब ध्यान में गहरी बैठक लगती है, तो क्षण भर के लिए ही सही हम अमन में प्रवेश करते हैं। अमन की स्थिति तब उपलब्ध होती है, जब मन का कोई केन्द्र-बिन्दु न हो, न अच्छा, न बुरा। एक साधक बता रहे थे कि ध्यान-शिविर की पिछली बैठक में जब मैं ध्यान कर रहा था, तो इतना गहरा उतर गया कि श्वांस-चक्र तो चल रहा था, लेकिन लगा मैं कहीं खो गया हूँ। पिछले वर्ष जब आबू में ध्यान-शिविर था, तो अंतिम दिन मैंने देखा, एक सधा हुआ ध्यान-साधक अचानक उठा और चिल्लाने लगा कि मेरा शरीर कहाँ चला गया ? कुछ लोग हंसे भी होंगे, लेकिन ध्यान में ऐसा होता है। ध्यान में शरीर की अनुभूति मिट जाती है। ऐसा लगता है मानो शरीर परमाणओं का पंज बन गया हो और इधर से उधर केवल डोल रहा हो।
पद है-'मन के कायाकल्प से जीवन स्वर्ग समान।' विकृत मन जीवन को नरक बनाता है और कायाकल्प किया हुआ मन जीवन को स्वर्ग बना देता है। मनुष्य अपने जीवन में सैकड़ों दफा स्वर्ग और सैकड़ों दफा नरक में जीता है। वही मकान, वही व्यवसाय, वही पत्नी-सब कुछ वही, लेकिन ये सब ही कभी मनुष्य को सुखी करते हैं और कभी दुःखी। तनाव, अवसाद, कुंठा, घृणा से घिरा मन जीवन को नरक बनाता है, प्रेम, शांति, सहृदयता में उतरा मन मनुष्य के लिए स्वर्ग का निर्माण करता है। इसीलिए संबोधि-सूत्र में कहा मन के कायाकल्प से जीवन स्वर्ग समान । मृत्यु-लोक के पार जो स्वर्ग-नरक हैं, उनकी तो कल्पनाएँ की जा सकती हैं, नक्शे बनाये जा सकते हैं या कहानियाँ कही जा सकती हैं, लेकिन इस जीवन में घटित होने वाला स्वर्ग और नरक हमें वास्तविक प्रतीति करवाता है।
काया मुरली बाँस की : : 45
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