Book Title: Mahaguha ki Chetna
Author(s): Lalitprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 128
________________ है। ध्यान वास्तव में सत्य को खोजने के लिए है। उस सत्य को खोजने के लिए जो मनुष्य के अन्तःअस्तित्व में अन्तर्लीन है। चेतना की स्वतंत्र-सत्ता का अनुभव करने के लिए और स्वयं की उपलब्धि के लिए ध्यान है। ___ हम दुख से घिरे हैं, एक अकारण दुख से। और उसका मूल कारण है हम दुख के मूल को नहीं हटा पाते हैं। परिणामतः प्रयास कर लेने के बावजूद हम अन्तदुख से मुक्त नहीं हो पाते हैं। जहाँ ममत्व-दृष्टि है, वहाँ दुख है। इसलिए ममत्व दृष्टि को सम्यकदृष्टि में रूपांतरित करो। शांत मन की साधना तभी संभव है जब मन प्रियता और अप्रियता की अनुभूति से मुक्त हो जाए। तुम्हें वह सब प्रिय है, जो तुम्हारी संवेदनाओं में सुख की अनुभूति कराता है। वह अप्रिय है, जो दुख के किसी निमित्त से जुड़ा हुआ हो। ध्यान का सम्बन्ध केवल अन्तर्जाति को उपलब्ध करना नहीं है, अपितु ज्ञाता का बोध उपलब्ध करने के लिए है। अच्छा या बुरा कभी किस पदार्थ का गुणधर्म नहीं होता। वह तो मन के संवेदन से ही जुड़ा होता है। गर्मी में बर्फ प्रिय है और सर्दी में उष्णता। न तो बर्फ में प्रियता है और अप्रियता है और न ही उष्णता में ही। प्रियता और अप्रियता का चश्मा अगर हम उतार दें तो उसके बाद अच्छे और बुरे का गुणधर्म स्वतः समाप्त हो जाता है। शांत मन के लिए हर प्रतिकूल अनुकूल होता है। जो है, अच्छा है, जैसा है, अच्छा है। शांत मन का स्वामी होने के लिए चेतना का स्पर्श करें। आत्मा के प्रश्न का हल न तो उपदेश से मिलेगा और न ही शास्त्रों से। यह तो केवल अनुभूतिगम्य होता है। भला अभिव्यक्ति में अनुभूति को कैसे लाया जाए। गूंगे केरी सर्करा वाली बात है यह तो। अब गूंगा भला गुड़ के स्वाद को कैसे अभिव्यक्त करे। जब तक हम शांत मन के स्वामी नहीं हो जाते, तब तक हमारी अशुभ लेश्याएँ रूपांतरित नहीं हो पाती हैं और न ही हम अपने आत्मिक आभामंडल को स्वच्छ और शक्तिशाली बना पाते हैं। शांत मनस् व्यक्ति के लिए ही तो सम्भव है कि वह अपने विचार और संवेदनाओं पर नियंत्रण प्राप्त कर सकता है और जिसे हम अतीन्द्रिय ज्ञान कहते हैं, वह मनुष्य के लिए शांत मनस् स्थिति को उपलब्ध करने के बाद पाया गया परिणाम है। फिर हमारी भाषा भी भाषा नहीं रहती, वह तरंग बन जाती है। तीर्थंकरों के बारे में कहते हैं कि वे वाणी का उच्चारण नहीं करते, केवल तरंगें देते हैं। और सभी अपनी भाषा में उसे समझ लेते हैं। जब व्यक्ति इस क्षमता को उपलब्ध कर लेता है, तो यह मत समझ लेना कि वह केवल कानों से ही सुनता है, अपितु वह आँखों से भी सुनना शुरू कर देता है और वह केवल आँखों से ही नहीं देखता। फिर वह नाक शान्त मनस् ही साधना : : 119 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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