Book Title: Mahaguha ki Chetna
Author(s): Lalitprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 129
________________ और कान से भी देखता है। सम्पूर्ण पंचेन्द्रिय का स्वामी बन जाता है वह। इसी को बुद्ध स्रोतापन्न स्थिति कहते हैं। जहाँ सारा शरीर देखता है, सारा शरीर सुनता है। _'शांत मनस् ही साधना, आत्मशुद्धि निर्वाण' । आत्मशुद्धि शांत मन का परिणाम है। क्योंकि आत्मा न तो शुद्ध है और न ही अशुद्ध । हाँ, उसके इर्दगिर्द जो अन्य तत्त्व हैं उनका शुद्धिकरण होता है। इसे यों समझें कि जैसे कोई ज्योति जल रही है और उसके इर्द-गिर्द धुआँ भी है। उस धुएँ का हट जाना, छंट जाना या मिट जाना इसी का नाम है निर्वाण, अन्तर्-पवित्रता की उपलब्धि; और इसके लिए आवश्यक है आत्मशुद्धि की उपलब्धि, मिथ्या दृष्टिकोण का रूपांतरण। केवल ध्यान की बैठक लगा लेने मात्र से या कायोत्सर्ग कर शिथिलीकरण कर लेने मात्र से मुक्ति कहाँ सम्भव होगी। सम्भव है तुम ध्यान की बैठक में होओ, लेकिन इसके बावजूद तुम उस बैठक में भी किसी को धोख देने की योजना बना सकते हो। शांत मन के स्वामी बनो, यही तुम्हारे लिए साधना का मार्ग है। आत्मशुद्धि और निर्वाण इसकी मंजिल और उपलब्धि है। 'भीतर जागे चेतना, चेतन में भगवान।' जग जाए भीतर में परम चैतन्य। यही तुम्हारी भगवत्ता का मूल है। जन्म-जन्मांतर तक संन्यास और मुक्ति के मार्ग पर चल लेने के बावजूद अंतश्चैतन्य के जाग्रत हुए बिना मुक्ति का मार्ग उसे परिणाम नहीं देता और बूंद में छिपे सिंधु से वह वाकिफ नहीं हो पाता। यह संबोधि-सूत्र हमारे लिए जीवंत प्रेरणा रहा है। जड़ से हटकर चेतन में और चेतन से महाचैतन्य में स्थित होने की यात्रा है यह। प्रभु ने संबोधि-सूत्र के माध्यम से कुछ अच्छी बातें आपको कहने का मौका दिया। और मैं इसके माध्यम से आपसे कुछ कह सका, इसका मुझे आत्म-तोष है। हम अगर अपनी अन्तरगुहा के करीब आएँ, भीतर बैठक लगाएँ, भीतर की महागुफा हमें चेतना के प्रकाश से आलोकित करने के लिए आमंत्रित करती है। आएँ, उतरें, अन्तरमन में, अन्तरगुहा में, महागुहा में, अन्तस् के आकाश में! 00 120 : : महागुहा की चेतना Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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