Book Title: Mahaguha ki Chetna
Author(s): Lalitprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 57
________________ अपने मन को। पहचान दो उसको सुवास की। संसार की अकूड़ी से मन बाहर निकले तो पहचान सके कि जीवन का स्वर्गिक सौन्दर्य क्या होता है। मन को जानो, उसे बदलो और उससे मुक्त हो जाओ। यही जीवंत धर्म है। अन्यथा मन की स्थिति उस छिद्र वाले बर्तन की तरह हो जाएगी जिसमें कुछ भी डालो, अंततोगत्वा उसमें से वापस निष्कासित होने वाला ही है। मनुष्य का मन छिद्रनुमा बाल्टी की तरह है, जिसे कुएं में डालो तो हमेशा खाली ही लौटकर आती है। रूपान्तरित करना है मन को, दबाने से काम नहीं चलेगा, जितना इसे दबाओगे, यह उतना ही उलझता जाएगा। जैसे-जैसे तपस्याएँ करके मन को समझाने और दबाने की कोशिश की गई, वैसे-वैसे वह तो और उलझनें खड़ी करता रह गया। बड़ा धैर्य चाहिए मन को समझने के लिए। एक ही दिन में रूपान्तरित न हो पाएगा यह । एक घंटे में वेश तो बदला जा सकता है, पर मन, इसको बदलने के लिए तो एक लम्बी यात्रा करनी पड़ती है, एक सुदीर्घ यात्रा। वहाँ छुटपुटपने से काम नहीं चलता, गुनगुनेपन से भी काम नहीं चलता। वहाँ तो चाहिए एक असीम धैर्य और सब-कुछ कुरबान करने के लिए खौलते पानी-सा जीवन । जल्दबाजी, बाहर का वैराग्य तो दे सकती है, किन्तु अन्तर्मुखी जीवन का निर्माण नहीं कर सकती। मुझे याद है-एक व्यक्ति तंग जूते पहना हुआ चल रहा था। सामने कोई एक मसखरा मिला। उसने कहा, 'भाई जनाब! जूते काफी तंग पहन रखे हैं। क्या बात है? तुम्हारे नहीं हैं क्या?' उसने कहा, 'क्या मतलब? मेरे जूते, मैं जानूं।' सामने वाले ने फिर कहा, 'कहाँ से लाए हो ये जूते?' वह गुस्से में तो था ही, कहा, 'पेड़ से तोड़कर लाया हूँ।' सामने वाले ने कहा कि 'भाई साहब, थोड़े और ठहर जाते, पूरे पक जाते फिर उतार लेते, तो पाँव में तंग नहीं रहते।' __ अधैर्य है हमारे पास और यही अधैर्य हमें बार-बार सफलता के करीब ले जाकर वापस लौटा लाता है। ध्यान की बैठक थोड़ी गहरी लगनी चाहिए। उचटी-उचटी बैठक मुक्ति-लाभ नहीं दिला पाती। एक घंटे अगर ध्यान में बैठते भी हो, तो वह बैठक स्वयं की बैठक कहाँ बन पाती है। एक घंटे में कुछ देर शरीर की बैठक लगती है, कुछ देर मन की बैठक लगती है, विचारों की बैठक लगती है, व्यवसाय, लेखा-जोखा, ऊटपटांग कितनी बैठकें लग जाती हैं। ध्यान की बैठक, स्वयं की बैठक कहाँ हो पाती है ? एक घंटे में मुश्किल से पाँच-दस मिनट हम खुद की बैठक लगा पाते हैं। 48 : : महागुहा की चेतना Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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