Book Title: Mahaguha ki Chetna
Author(s): Lalitprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 80
________________ का निदान तो चिकित्सक कर देते हैं लेकिन मनस- रोगों की चिकित्सा तो सद्गुरु ही करते हैं। वे तुम्हें प्रकाश देते हैं, अन्तर्दृष्टि देते हैं कि चेतना के अन्तर अस्तित्व के रोगों को पहचान सको और उन रोगों से विमुक्त हो सको 1 मन के रोग ही रोग हैं। तन के रोग आते-जाते रहते हैं । मन के रोग तो आसन जमाए बैठे रहते हैं । आखिर जो मन में होगा, वही तो तन में होगा । मन का छुपा हुआ तन में प्रकट हो जाता है । ओह, हमारी यही विडम्बना रही कि न जान सके अपने मन के रोगों को, मन की खटपट को, मन के मवाद को। गुरु अन्तर्मन का प्रकाश है । गुरु अन्तरमन की चिकित्सा है। गुरु हमें उस अन्तर्दृष्टि का स्वामी बनाता है जिससे पहचान सकें हम कि मन में कैसा रोग है। अन्तर-जीवन का स्वास्थ्य, अन्तर - जीवन की शुद्धि और शांति प्रदान करना ही, मुक्ति प्रदान करना ही गुरु का धर्म है । आज के संबोधि-सूत्रों का सार यही है कि मनोभावों का रूपान्तरण हो । अन्तर्दशा में जागरूकता और सजगता आए । किसी सद्गुरु का, सुनी-सुनाई बातों से नहीं, प्रवचनों से प्रभावित होकर भी नहीं, वरन् जिसकी वाणी से, जिसके संदेशों से तुम्हारी चेतना झंकृत हो जाए, जिसकी वीणा से तुम्हारे तार झंकृत हो जाएं, उसके चरणों में जाकर अपने जीवन को, अपने हृदय को, अपनी चेतना को समर्पित करो। ताकि तुम पर रोशनी की बौछार हो सके । प्रज्ञा-पुरुष का सामीप्य पाकर अन्तर्दृष्टि को उपलब्ध हो सको । और इस अन्तर्दृष्टि में खुद पहचान सको कि तुम्हारे भीतर कौन - कौनसे रोग हैं। जब तक रोगों की पहचान नहीं होगी, रोगों से मुक्त होने का उपक्रम कैसे कर पाओगे ? इसलिए सद्गुरु के पास जाकर वह रोशनी, वह अन्तर्दृष्टि पाएं कि अपने रोगों को पहचान सकें। इसका प्रथम और अन्तिम उपाय है ध्यान में उतरो, आत्म- रमण में उतरो और देह-भाव तथा अहंभाव से मुक्त हो जाओ । मन में, मन से पार जाकर, चित्त में चित्त से पार पहुँचकर, विचारों में विचारों से ऊपर उठकर अपने अस्तित्व से पहचान करो, यही अनुरोध है । अभिवादन | Jain Educationa International For Personal and Private Use Only सद्गुरु बांटे रोशनी .. www.jainelibrary.org

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