Book Title: Mahaguha ki Chetna
Author(s): Lalitprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 111
________________ गुरु ने उसे अभिमंत्र दिया कि 'तुम वर्तमान में स्थित रहो-यही अभिमंत्र है। ओ मेरे परम शिष्य ! अतीत और भविष्य ? का स्मरण करते रहना वर्तमान से वंचित होना है। जो व्यक्ति अतीत का और भविष्य का चिंतन करता रह जाता है उसके जीवन का आधा भाग स्मरण में और शेष आधा भाग कल्पनाओं के ताने-बाने में ही समाप्त हो जाता है। अतीत और भविष्य के झूले में वर्तमान लुप्त हो जाता है। जो वर्तमान का सामना नहीं करना चाहता, वही या तो अतीत की स्मृतियों को जीएगा या भविष्य के सपने संजोएगा। जिसमें आज से मुकाबला करने का साहस नहीं होता, वही कल और कल पर जीता रहता है। जरा सोचो जिसका अस्तित्व इस क्षण में नहीं है उसके स्मरण या कल्पना से क्या मिलने वाला है। माना कि तुम्हारा अतीत स्वर्णिम था, पर आज तो उसका अस्तित्व नहीं है। तब फिर उन सबके स्मरण से क्या मिल जाएगा। हाँ, मिलता है एक सुख जो आज के दुख से थोड़ी-सी राहत दिला देता है। इसके विपरीत आज तुम विपत्ति में भविष्य के स्वर्णिम होने की कल्पना कर लेते हो, इससे भी तुम्हें आज कुछ नहीं मिलता। मिलती है काल्पनिक सांत्वना, काल्पनिक सुख की आकांक्षा, पर आज? आज तो सब शून्य है। हाँ, आज तुम प्रयास कर सकते हो, तब आने वाला कल जो तुम्हारा आज होगा, शायद बेहतर हो जाए। लेकिन उसके लिए जाल फैलाना निरर्थक है। क्योंकि तुम नहीं जानते जिस बेहतरी के उपाय आज कर रहे हो, उन्हें भोगने के क्षणों में तुम होओ, न होओ। तुम्हारा अस्तित्व हो न हो। फिर यह सब संत्रास क्यों ? आज को और इस क्षण को भरपूर जी लो कि सारी कामना, आकांक्षा धुल जाए। लेकिन मनुष्य इस अतीत और भविष्य में अपना वर्तमान नष्ट करता चला जाता है। कुछ समय पूर्व की बात है। एक अतिवृद्ध सज्जन से मिलना हुआ। उनके आग्रह पर मैं उनके घर गया हुआ था। बातचीत चल रही थी। वे अपने अतीत के किस्से बयान कर रहे थे। उनके दो पुत्र थे-एक स्वर्गीय हो चुका, दूसरा अलग रहता है। पत्नी भी नहीं रही है। पुत्रियों की शादी कर दी है। और अब उन्हें एक ही दुःख हरदम सताता है कि इस वृद्धावस्था में उनकी कोई ठीक तरीके से देखभाल नहीं करता। पत्र और पोते अपने-अपने परिवारों में लग गए हैं। उन्होंने सबके लिए क्या कुछ नहीं किया और अब वे बिल्कुल अकेले रह गए हैं। अपने अतीत के स्मरण में वे इतना डूब गए कि उन्हें यह भी ध्यान न रहा कि मैं उनके यहाँ बैठा हूँ। तब मैंने पाया कि काश जिस अतीत में वे 102 : : महागुहा की चेतना Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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