Book Title: Mahaguha ki Chetna
Author(s): Lalitprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 112
________________ इतने मगन हैं उससे एक क्षण भी बाहर निकल कर देखें कि यह धरती आज भी उतनी ही सुन्दर है। आकाश उतना ही निर्मल है, वायु उतनी ही शीतल है, सूर्य उतना ही प्रखर है, चाँद-तारे उतने ही उज्ज्वल हैं। अतीत की कब्र से बाहर आएं तो पाएंगे कि यहाँ सब कुछ वैसा का वैसा है। बस, तुम्हारी आँख वर्तमान की ओर खुल जाए। तुम वर्तमान के अनुपश्यी बन जाओ। अब हमें यह देखना है कि हम जीवन का सार्थक उपयोग कैसे करते हैं। क्या जीवन की सार्थकता केवल बाह्य रूप से मंदिर जाने में है या दिखावे के लिए धर्म से जुड़े रहने में है? जब तक आंतरिक रूपान्तरण की घटना नहीं घटती तब तक चाहे वेश-परिवर्तन करो या सिर मुंडाओ अथवा वस्त्रहीन हो जाओ, कुछ फर्क पड़ने वाला नहीं है। अगर विचार-शुद्धि न हुई या चित्त-वृत्तियों में रूपान्तरण नहीं हुआ तो जन्मों-जन्मों तक संन्यास मार्ग पर चलने के बावजूद जीवन का शिलान्यास नहीं हो पाएगा और न ही परमात्मा के मंदिर में पहुँचकर भी अपने जीवन को मंदिर का रूप दे पाओगे। मैंने पाया है कि व्यक्ति बाह्य रूप से तो जीवन संवार लेता है, बाहर से तो बहुत ही स्वच्छ प्रतीत होता है, लेकिन चित्त की अन्तवृत्तियों में कोई परिवर्तन नहीं हो पाता है। वर्षों से, वर्षों तक धर्म-मार्ग से जुड़े रहने के उपरान्त भी जीवन में लेशमात्र भी धर्म का समावेश नहीं हो पाता। क्या हम अपनी विचार-शुद्धि कर पाए, क्या हमारा मानस निर्मल और पवित्र हो पाया। चाहे तुमने कितने ही उपवास किए हों, कैसे भी उपासना की, शास्त्रों का पठन-पाठन करते रहे हो, यह सब ऊपर-ऊपर, बाहर-बाहर चलता रहा, एक बूंद भी अंतस् में न उतर पाई। हमारी अंतश्चेतना को कोई स्पर्श न मिला और हम अनंत भंडार से अछूते रह गए जो हमारी वास्तविक संपदा है। बाहर तो एक ही सूर्य का प्रकाश है, लेकिन भीतर तो अनंत सूर्यों का प्रकाश है। जब भीतर उतर जाओगे तो पाओगे–'बिन बाजा झंकार उठे, रस गगन गुफा में अमिय झरै। लेकिन तुमने धर्म किया पुण्यों के उपार्जन के लिए, न कि अन्तरमन की शांति और आनन्द पाने के लिए। तुम सुख पाना चाहते हो जो क्षणिक है, आनन्द नहीं, जो सदा सर्वदा है। उपवास, उपासना और उपनिषद् को भी केवल बाहर-बाहर जीया है। भोजन का उपवास कर लिया और किसी पर्व-तिथि पर मंदिर में जाकर रस्म अदा कर आए। लेकिन इन शब्दों के जो गहरे अर्थ थे, वहाँ तक हम नहीं पहुँच पाए। उपवास का अर्थ है आत्म-वास, अपनी आत्मा के पास बैठना; और उपासना अर्थात् भीतर में साक्षी हों वर्तमान के : : 103 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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