Book Title: Mahaguha ki Chetna
Author(s): Lalitprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 79
________________ के प्रति गहन श्रद्धा, सघन आस्था पनप जाए कि तुम्हें गुरु में केवल गुरुता ही नजर आए। कहते हैं - एक गुरु और शिष्य यात्रा कर रहे थे। घने जंगल में किसी वृक्ष की छाया में उन्होंने विश्राम किया। गुरु बैठे थे और युवा शिष्य सो गया तभी अचानक कहीं से भयानक विषधर सर्प निकल आया। गुरु ने उसे रोकना चाहा। लेकिन सर्प न रुका। उसने कहा, “तुम्हारा यह शिष्य मेरे पूर्व भव का वैरी है, मैं इसका रक्तपान करूंगा।" गुरु ने पूछा, “तुम इसे मारना चाहते हो या केवल रुधिर से तृप्त हो जाओगे ?" सर्प ने कहा, "मुझे तो केवल इसका खून चाहिए ।" यह सुन गुरु ने अपने थैले से चाकू निकाला और सोये हुए शिष्य की त्वचा को छील दिया। शिष्य ने आँख खोली, देखा, फिर आँखें बन्द कर लीं। गुरु ने खून निकाला और पत्तों के दोने में भरकर सर्प को दे दिया । सर्प संतुष्ट होकर चला गया, वैर पूरा हो गया। इधर शिष्य फिर भी सोया रहा। आखिर गुरु ने उसे उठाया और पूछा, मैं तुम्हारे शरीर पर चाकू चला रहा था। तुम्हें मालूम पड़ा ? शिष्य ने हाँ भरी। गुरु ने पूछा, "मुझ पर संदेह हुआ।" उसने कहा, "नहीं।" गुरु ने पूछा, "तुम्हें भय नहीं लगा, तुम उठकर नहीं बैठे, मुझे रोका नहीं ?" शिष्य ने उत्तर दिया, "जब गुरु चरणों में जीवन ही समर्पित कर दिया, तो दो कतरे खून से कैसा मोह ! कैसा संशय !” कृष्ण कहते हैं 'संशयात्मा विनश्यति' । संशय में जीने वाली आत्मा किसी छोर को नहीं पकड़ पाती । वह सदा अंधकार में रहती है। सद्गुरु का कार्य ऐसे अंधकार में रहने वाले अंधों को आँखें देना है अर्थात् जो मनुष्य भीतर से अंधा हो गया है, इसके प्रज्ञा चक्षु का उद्घाटन करना है। ताकि हो सके जीवन अनुभव भरी सवेर। अभी तक उसने शरीर का, संसार का स्वाद व अनुभव ही जाना था अब सद्गुरु ने उसे अनुभवों का नया संसार दिया है। उसके जीवन की अनुपम भोर हुई है। इस नूतन प्रभात के आलोक में वह देख सकेगा कि वह किन रोगों से ग्रसित है । प्रज्ञा-पुरुष ने जो सूर्य जगाया है उसे अभिनव अन्तर्दृष्टि प्राप्त हुई है। प्रज्ञा-पुरुष तुम्हें भीतर देखने की दृष्टि देता है। जब तक भीतर की दृष्टि नहीं मिलती, व्यक्ति भेदज्ञान को उपलब्ध नहीं हो पाता। वह शरीर को चेतना से अलग नहीं देख पाता, लेकिन ज्ञानवान प्रज्ञा-पुरुष तुम्हें यह कला सिखाता है कि तुम स्वयं को स्वयं से अलग कर पाओ। और जान सको कि तुम्हारे भीतर राग, द्वेष, मोह, मत्सर जैसे रोगों ने स्थान बना लिया है। शरीर के रोगों 70 :: महागुहा की चेतना Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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