Book Title: Mahaguha ki Chetna
Author(s): Lalitprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 95
________________ होता जाएगा। जैसे-जैसे तुम्हारी चेतना के इर्द-गिर्द मंडराने वाले कोहरे को तुम नीचे गिराओगे, वैसे-वैसे तुम्हारे भीतर छिपा हुआ प्रकाश ज्योतिर्मय होकर बाहर आएगा। दुनिया में जितने संत हुए चाहे वे आनंदघन हों, चाहे वे कबीर हों, चाहे दादू या रैदास-उन सब लोगों के शास्त्रों का, पदों का एक ही सार रहा है कि जिस सूर्य को तुम बाहर निहार रहे हो, ऐसे सौ-सौ सूर्य तुम्हारे भीतर छिपे हुए हैं, अगर व्यक्ति उस राह से गुजरे ही नहीं, तो इसका बोध कैसे हो। ऐसा कभी नहीं हुआ, न होता है कि व्यक्ति माँ के पेट से निकलते ही युवा बन जाए। एक क्रमिक विकास होता है जिसके बाद ही एक आयु विशेष के द्वार तक पहुँचा जाता है। साधना के मार्ग पर भी क्रमिक विकास होता है। यह तो बीज है, जिसे बहुत संभालना पड़ता है। सघन साधना करनी होती है। बीज़ अगर बोया है, तो उसकी देखभाल तो करनी ही होगी। एक दिन में पौधा नहीं बनेगा और न शीघ्र ही फल आएंगे। हाँ, घास-पात जरूर अपने आप उग आएगा। ऐसे ही साधना को गहराई से संभालना होता है। कदम डगमगाएंगे, कई बार असुरक्षा भी जन्म लेगी लेकिन भीतर की सजगता के साथ उस बीज की रक्षा करनी होगी। साधना के मार्ग पर भी लाखों-लाख कदम उठते हैं। उनमें से कुछेक ही सफल हो पाते हैं। साधक के मार्ग में कई विचलन के छिलके, कई कांटे, कई पथरीले मार्ग आते हैं। जैसे ही वह साधना का प्रारम्भ करता है, उसके भीतर सोए हुए अतीत के कर्म-परमाणु जाग्रत होते हैं। और वे उसकी साधना को तिरोहित करने के लिए, उसे तोड़ने के लिए हावी होने शुरू हो जाते हैं। जो व्यक्ति गहरे धैर्य के साथ, गहरे संकल्प के साथ कदम आगे बढ़ाता है, वह सफलता के द्वार पर पहुँच सकता है। मेरे प्रभु, एक बात खयाल में रखने जैसी है कि तुम चाहो तो एक वर्ष में करोड़पति बन सकते हो, लेकिन एक वर्ष में ज्ञानी नहीं बन सकते। दीर्घ तपस्याएँ करके भी आत्म-तत्त्व को उपार्जित कर लो, यह निश्चित नहीं है। यह जो भीतर की यात्रा है, इसे प्रायः यह कहकर छोड़ दिया जाता है कि यह अंधेरे की यात्रा है। जब तक अंधेरे को नहीं देखोगे, प्रकाश का मूल्य नहीं कर पाओगे। रात के अंधकार के बाद ही सुबह के सूरज की किरणें इतनी मनोरम और सुखदायी लगती हैं। इसलिए जो व्यक्ति प्रकाश को चाहता है, उसके लिए आवश्यक है कि वह अंधेरे से गुजरे। सूर्योदय की भोर पाने के लिए हमें रात से गुजरना पड़ेगा, चेतना में छिपी हुई दिव्यता को, प्रकाश के 86 : : महागुहा की चेतना Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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