Book Title: Mahaguha ki Chetna
Author(s): Lalitprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 68
________________ आज तो मुक्ति क्यों नहीं हो सकती । तुम जो मुक्ति की परिभाषा समझते हो आज, तो वह अलग बात है । संबोधि-सूत्र का जो मोक्ष है वह तो जीवनमुक्ति की बात कह रहा है, क्योंकि यह मुक्ति ध्यान के द्वारा निष्पादित होती है। ध्यान का लक्ष्य ही मुक्ति है। ध्यान का लक्ष्य कोई उपलब्धि नहीं, अपितु मुक्ति ही है। बगैर मुक्ति के ध्येय का ध्यान हमें लक्ष्य तक नहीं पहुँचा सकता । हमारा लक्ष्य बड़ा स्पष्ट रहना चाहिए। ध्यान की मस्ती में अगर मृत्यु होती है, इसी का नाम तो मुक्ति है । मुक्ति कोई जाने की चीज नहीं है, जीने की चीज है । जी भर कर जीओ इसे । यों तो व्यक्ति हर क्षण मर और जी रहा है । सांस लेना जीवन है और सांस छोड़ना मृत्यु है, लेकिन वह मृत्यु व्यक्ति के जीवन को अमरत्व देती है जो ध्यान और होश से जुड़ी रहती है। जीवन-मुक्ति के पाँच चरण हैं - एक साक्षीत्व के किनारे बैठो। भीतर या बाहर घटित होने वाली घटनाओं के केवल साक्षी और दृष्टा बने रहो । अपने तृतीय नेत्र को जाग्रत करो और उसी में लीन हो जाओ। दूसरा चरण है - अन्तस् के आकाश को खोज लो। इसे हम शब्द देंगे निर्विकल्पता । जैसे आकाश विकल्पातीत होता है, वैसे ही अपने चित्त को निर्विकल्प कर दो । तीसरा चरण है - विषयों की अनुपस्थिति का अनुभव करो | यह है विदेह होकर जीने की कोशिश । देह के गुण-धर्म तुम्हें लक्ष्य तक प्रभावित करते रहेंगे, लेकिन गुणधर्मों के प्रति अन्तरजागरूकता बढ़ाओ और उनसे मुक्त होने का प्रयास करो । चौथा चरण है समग्र अस्तित्व से प्रेम करो यानी सम्पूर्ण पृथ्वी पर परमात्मभाव से जीने की कोशिश करो। तुममें भी प्रभुता है और औरों में भी प्रभुता है । सर्वत्र प्रभुता को स्वीकार करो, अपने अन्तर्मन में पलने वाली स्वार्थ भावना को मुक्त करो और विश्व बंधुत्व के भावों को जीवित करो । पाँचवां चरण है - हर हाल में मस्त रहो। यह मुक्ति की अनुभूति से जुड़ा है। सुख-दुख, सम-विषम, हानि-लाभ, सम्मान-अपमान सबमें एकरूपता । जो होना है, सो हो रहा है। जिसे नहीं होना है वह नहीं हो रहा है। मैं तो अपनी मस्ती में मस्त रहूँ। ऐसे भावों को प्रकट कर स्वयं को मुक्त अनुभव करो । I 'भीतर बैठे ब्रह्म को प्रमुदित हो पहचान - ईश्वर को या परमात्म तत्त्व को उपलब्ध करना ज्यादा कठिन काम नहीं है और न ही कहीं और उसकी तलाश के लिए जाना पड़ता है। तुम जिसे निकट मानते हो, वह तो दूर से दूरतम है। पहचानें, निज ब्रह्म को :: 59 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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