Book Title: Mahaguha ki Chetna
Author(s): Lalitprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 55
________________ 'भक्ति से श्रृंगार हो, रोम-रोम रसगान।' किससे करो मन का कायाकल्प? भक्ति से। सबसे सीधा-सहज-सरल उपाय भक्ति ही तो है। मनुष्य के अन्तर्मन के शृंगार करने के लिए, मन के कायाकल्प की गहरी अभीप्सा जगाई जा रही है, जिसे श्री अरविन्द ने तल्लीनता कहा है। तल्लीनता जग जाए, तो फिर कौन उसे मिटा सकता है, हटा सकता है। चाहे कैसे भी संदेह डाल दिये जाएं, लेकिन हर परिस्थिति में तल्लीनता अबाध बनी रहती है। आज मानव जाति की विचित्र स्थिति है। बेशुमार भौतिक सुविधाएँ उपलब्ध करते-करते वह छलछला उठी है, लेकिन तृप्ति नहीं मिल पाई है उसे। प्रज्ञा जब अपनी प्रकृष्टता को उपलब्ध करती है, तो उसके जीवन के चार ही ध्येय बनते हैं-भगवान, प्रकाश, स्वाधीनता और अमरता। सम्पूर्ण अध्यात्म-जगत का यही अभिवांछित है। अध्यात्म के आदि और अन्त-यही चारों हैं। मार्ग भी यही है और मंजिल भी यही है, ध्यान भी यही है और ध्येय भी यही है। भले ही ये चारों दिखने में मनुष्य जाति के लिए असामान्य से लगते हों, लेकिन हमारी चेतना के स्वभाव भी यही हैं। जब मनुष्य के अन्तर्मन में तल्लीनता और अभीप्सा जग जाती है, तो उसके बाद उसके व्यक्तिगत प्रयास दिव्य चेतना की ओर अभिमुख हो जाते हैं। मनुष्य के अन्तर्मन में विकारों और अहंकारों से भरी दिव्य-सत्ता में परम-चैतन्य ज्योति को विराजमान करना और उसे चैतन्य कर देना। उसे पाना और वही हो जाना स्वयं में भगवान की उपलब्धि है। संसार की ओर अभिमुख होती हुई मानसिकता को अतिमानसिक प्रकाश में रूपांतरित करना, यह प्रकाश की उपलब्धि है। जीवन जहाँ केवल शारीरिक पीड़ाओं और कष्टों में घिर जाए, वहाँ स्वयंभू आनंद का निर्माण करना जीवन का प्रकाश है। यांत्रिक होती हुई जिंदगी, जहाँ सब कुछ यंत्रवत् चल रहा हो, किसी बच्चे ने गलती की, तुम्हें गुस्सा आया, यंत्रवत् हाथ ऊपर उठा और तुमने चांटा जड़ दिया। जो मनुष्य स्वयं को यांत्रिक झुण्ड के रूप में प्रकट करता हो वहाँ आत्म-स्वाधीनता को प्रतिष्ठित करना और क्षण-क्षण परिवर्तनशील हो रहे पार्थिव शरीर में अमरत्व उपलब्ध करना। यह जीवनसाधना की पूर्णता है। ___'मन के कायाकल्प से जीवन स्वर्ग समान।' रूपान्तरण करो अपनी मानसिकता का और सामान्य मन को अतिमनस में ढाल दो, ताकि मन की सक्रियता और शक्ति हमारे जीवन में स्वाधीनता और अमरत्व को उपलब्ध करने में सहयोगी बन सके। अपने मन को शृंगारित करो, उतरो भीतर, खोज-पड़ताल करो और देखो भीतर कि मन का सौन्दर्य कितना मिटता जा रहा है। असुंदरता 46 : : महागुहा की चेतना Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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