Book Title: Mahaguha ki Chetna
Author(s): Lalitprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 39
________________ का कक्ष है, फकीर ने बताया जहाँ हम कुछ नहीं करते। अब तो सम्राट को और अधिक ताज्जुब हुआ कि एक ओर तो कहते हैं कि यह ध्यान का कक्ष है और दूसरी ओर बताते हैं कि यहाँ कुछ भी नहीं करते। फकीर ने समझाया, सम्राट ! ध्यान वही होता है जिसमें व्यक्ति कुछ भी नहीं करता है। जहाँ मनुष्य कर्त्ताभाव को छोड़कर क्रियाशील होता है, जहाँ उसकी प्रवृत्तियाँ समाप्त हो जाती हैं वहीं ध्यान की भूमिका निर्मित होती है। इसलिए इस कक्ष में हम कुछ भी नहीं करते। हर व्यक्ति के जीवन में प्रतिदिन कुछ क्षण ऐसे अवश्य आते हैं जब उसके पास करने को कुछ नहीं होता। वह एकदम खाली होता है, लेकिन उसे इस समय का उपयोग करना नहीं आता। वह इस रिक्तता को बाह्य वस्तुओं से भरने का प्रयास करने लगता है। कभी अखबार पढ़ेगा, कभी टी.वी. देखेगा या फिल्म देखेगा, कुछ भी करेगा जरूर, अपने को व्यस्त रखने के सब उपाय करेगा, लेकिन एक ऐसा उपाय है जिसे वह कभी कर नहीं पाता। अपनी चेतना को समझने का प्रयास । वे क्षण कितने पावन होते हैं, कितने निर्मल होते हैं। . जब हम अपनी प्रवृत्तियों को जानने की ओर अग्रसर होते हुए उनसे निवृत्त होने की भी कोशिश करते हैं। ध्यान का भवन जहाँ कुछ भी नहीं किया जाता। जहाँ चेतना में प्रवृत्तियों से मुक्ति आ जाए और निजानन्द स्वरूप को जानने की भावना जाग्रत हो जाए वहाँ मनुष्य के जीवन में ध्यान सधना शुरू होता है। इसलिए कबीर ने ध्यान को 'सुरति' कहा। सुरति अर्थात् स्मृति जब मनुष्य की स्मृति में ही चेतना का बसेरा हो गया। अभी तो मनुष्य की स्मृति में संसार और इसका मायाजाल, अतीत और भविष्य की खूटियाँ लटकती रहती हैं, लेकिन जब इन खूटियों के बीच 'सुरति' स्वयं की स्मृति जन्म जाए तब ध्यान के राजमार्ग खुलते हैं। कबीर एक जुलाहा था, वस्त्र बुनता था, पत्नी-बच्चों के साथ रहता था, लेकिन 'सुरति जाग गई। उसने वेश-परिवर्तन नहीं किया और न ही सिर मुंडाया बल्कि जैसे तुम सबके बीच, संसार के मध्य रहते हो ऐसे ही वह भी रहता था, लेकिन "सुरति' के साथ। उन्होंने कहा-गाएं घास चरने जंगल में जाती हैं, दिन भर घास चरती हैं, आनंदित होती हैं लेकिन उनकी ‘सुरति तो घर में बंधे बछड़े में होती है। उसकी स्मृति में तो बछड़ा ही रहता है। पनिहारिनों की 'सुरति' पानी भरे घड़े में और नट की सुरति रस्सी में रहती है, उसी तरह तुम भी चेतना में अपनी सुरति रखो। उस असीम में अपनी सुरति रखो जिसके कारण तुम्हारा अस्तित्व है। 30 : : महागुहा की चेतना Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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