________________
[ ६ ] अन्तिम समयके प्रथम और अन्तिम खण्ड विसदृश होते हैं तथा शेष सब खण्ड यथासम्भव सदृश होते हैं । इस प्रकार प्रत्येक समयके परिणामोंकी क्रमवार जो रचना बनती है उसके अनुसार द्विचरम समय तक के प्रथम खण्ड और अन्तिम समयके सब खण्डोंकी विसदृश पंक्ति बन जाती है। यहाँ विशुद्धिके तारतम्यका विचार ४८ संख्याक गाथामें किया गया है सो इसे संस्कृत और हिन्दी दोनों टीकाओंसे जान लेना चाहिये । दूसरे करणका नाम अपूर्वकरण है । यहाँ प्रत्येक समय के परिणाम अन्य- अन्य होते हैं, इसलिए इसकी अपूर्वकरणसंज्ञा है । इस करणके भी प्रत्येक समय में असंख्यात लोकप्रमाण परिणाम होते हैं जो उत्तरोत्तर विशेष अधिक होते हैं। विशेषका प्रमाण लाने के लिए प्रतिभागका प्रमाण अन्तर्मुहूर्त है । यहाँ विशुद्धिका प्रमाण उत्तरोत्तर अनन्तगुणा पाया जाता है जो षट्स्थानपतित वृद्धिको उल्लंघन कर प्राप्त होती है। इस करण से लेकर गुणश्रेणिरचना, गुणसंक्रमण, स्थितिकाण्डकघात और अनुभाग काण्डकघात ये कार्य प्रारम्भ हो जाते हैं जो सम्यक्त्वमोहनीय और मिश्रमोहनीयके पूरण होनेके काल तक होते रहते हैं । स्थितिबन्धापसरण और स्थितिकाण्डकघातका काल समान है । तथा एक स्थितिकाण्डकघात के भीतर हजारों अनुभागकाण्डकघात होते हैं । गुणश्रेणिकी रचनाका आयाम अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणके कालसे साधिक होता है । प्रकृत में अपकर्षण और उत्कर्षणको ध्यान में रखकर निक्षेप और अतिस्थापना आदिका विचार मूलमें विस्तारसे किया ही है । अधिक विस्तार होने के कारण यहाँ उनपर विशेष प्रकाश नहीं डाल रहे हैं । यह गुणश्र ेणिरचना आयुकर्मकी नहीं होती, शेष सभी कर्मोकी होती है ।
तीसरा अनिवृत्तिकरण । इसके प्रत्येक समयमें एक ही परिणाम होता है, इसलिए इस करणका जितना काल है उतने इसके परिणाम जानने चाहिये । यहाँ स्थितिकाण्डकघात आदि सब कार्य नये होते हैं । इसका संख्यातवाँ भाग काल शेष रहनेपर दर्शनमोहनीयका अन्तरकरण प्रारम्भ होता है । प्रथम स्थिति और उपरितन स्थिति के मध्यकी अन्तर्मुहूर्तप्रमाण स्थितिके निषेकोंका उक्त स्थितियों में निक्षेपण करके अभाव करना अन्तरकरण कहलाता है । एक स्थितिकाण्डकघात में जितना काल लगता है उतना ही अन्तरकरणका काल है । अन्तरका प्रमाण गुणश्रेणिशीर्षसे संख्यातगुणा है । अन्तरकरण क्रिया सम्पन्न होनेके बाद द्वितीय स्थिति में स्थित दर्शनमोहनीयका उपशम ( उदयके अयोग्य) करता है । तदनन्तर प्रथम स्थितिके गलने के बाद अन्तरके प्रथम समय में यह जीव प्रथमोपशम सम्यग्दृष्टि हो जाता है और यहींसे मिथ्यात्व के द्रव्यको मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यग्प्रकृतिमिथ्यात्व इन तीन भागों में विभक्त करता है । जब गुणसंक्रमका काल पूरा हो जाता है तब से विध्यात संक्रमके द्वारा मिथ्यात्वके द्रव्यको मिश्र और सम्यक् प्रकृतिरूपसे परिणमाता है । यहाँ दर्शनमोहनीयके स्थितिकाण्डकघात और अनुभागकाण्डकघात नहीं होते, शेष कर्मोंके होते हैं इतना विशेष जानना चाहिये । दर्शनमोहनीयका उपशम करनेवाला जीव मरणको नहीं प्राप्त होता और सासादनगुणस्थानको भी नहीं प्राप्त होता । हाँ उपशम सम्यग्दृष्टि होनेके बाद उसके कालमें अधिक से अधिक छह आवलि और कमसे कम एक समय शेष रहने पर वह सासादन गुणस्थानको प्राप्त हो सकता है ।
यहाँ संस्कृत टीकामें बतलाया है कि उपशमनकालके भीतर अर्थात् उपशमन क्रिया करते समय इस जीव अनन्तानुबन्धीका उदय न होनेसे वह सासादन- गुणस्थानको नहीं प्राप्त होता, किन्तु मिथ्यात्व - गुणस्थानके अंतिम समय तक अनन्तानुबन्धी चतुष्कमेंसे किसी एकका उदय बना रहता है, इसलिए यहाँ ऐसा समझना चाहिये कि दर्शनमोहनीयको उपशमन क्रिया करते समय भी यहाँ अनन्तानुबन्धीका उदय रहते हुए भी वह सासादनगुणस्थानको नहीं प्राप्त होता, क्योंकि उसके मिथ्यात्वका उदय बना हुआ है । श्री जयधवला टीका गाथा ९९ में आये हुए 'णिरासाणी' पदका यही अर्थ किया है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org