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जघन्य-अजघन्यविभक्ति-सबसे जघन्य स्थिति जघन्य स्थितिविभक्ति है और उससे अधिक स्थिति अजघन्य स्थितिविभक्ति है । मूल और उत्तर प्रकृतियोंमें इस बीजपदके अनुसार घटित कर लेना चाहिए।
सादि-अनादि-ध्रुव-अध्रुवविभक्ति–सामान्यसे मोहनीयकी जघन्य स्थिति क्षपक सूक्ष्मसाम्परायिक जीवके अन्तिम समयमें होती है, अतः जघन्य स्थितिविभक्ति सादि और अध्रुव है। इसके पूर्व अजघन्य स्थितिविभक्ति होती है, इसलिए वह अनादि तो है ही। साथ ही वह अभव्यों की अपेक्षा ध्रुव और भव्योंकी अपेक्षा अध्रुव भी है । तथा उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्ति कादाचित्क होती है इसलिए वे सादि
और अध्रुव हैं। उत्तर प्रकृतियोंकी अपेक्षा मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंके विषयमें इसीप्रकार जानना चाहिए । अर्थात् इनकी उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट और जघन्य स्थितिविभक्ति सादि और अध्रुव होती है । तथा अजघन्य स्थितिविभक्ति सादि विकल्पको छोड़कर तीन प्रकारकी होती है । कारण स्पष्ट है । सम्यक्त्व
और सम्यग्मिथ्यात्व ये दो प्रकृतियाँ ही सादि हैं, इसलिए इनकी उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य ये चारों स्थितिविभक्तियों सादि और अध्रुव होती हैं। अब रही अनन्तानुबन्धीचतुष्क सो इसकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तियाँ कादाचित्क होनेसे सादि और अध्रुव हैं। तथा जघन्य स्थितिविभक्ति विसंयोजनाके बाद इसकी संयोजना होनेके प्रथम समयमें ही होती है, इसलिए यह भी सादि और अध्रुव है। किन्तु अजघन्य स्थितिविभक्ति विसंयोजनाके पूर्व अनादिसे रहती है तथा विसंयोजना के बाद पुनः संयोजना होनेपर भी होती है, इसलिए तो वह अनादि और सादि है। तथा अभव्योंकी अपेक्षा ध्रुव
और भव्योंकी अपेक्षा अध्रुव भी है । इसप्रकार अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अजघन्य स्थितिविभक्ति सादि आदिके भेदसे चारों प्रकारकी है। यह ओघ प्ररूपणा है। मार्गणाओंमें अपनी अपनी विशेषताको जानकर योजना करनी चाहिए।
स्वामित्व-सामान्यसे मोहनीयको उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव उत्कृष्ट स्थितिषिभक्तिका स्वामी है। अवान्तर प्रकृतियोंकी अपेक्षा मिथ्यात्व और सोलह कषायोंके विषयमें इसी प्रकार स्वामित्व जानना चाहिए । यद्यपि यहाँ पर यह कहा जा सकता है कि उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करके द्वितीयादि समयोंमें अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवालेके उत्कृष्ट स्थितिका एक भी निषेक नहीं गलता, इसलिए केवल बन्धके समय उत्कृष्ट स्थिति न मानकर अन्य समयोंमें भी उत्कृष्ट स्थिति मानी जानी चाहिए पर यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि उत्कृष्ट स्थिति कालप्रधान होती है और द्वितीयादि समयोंमें अधःस्थिति गलनाके द्वारा एक एक समय कम होता जाता है, इसलिए उत्कृष्ट स्थितिबन्धके समय ही उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति मानी गई है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिका ऐसा प्रथम समयवर्ती वेदकसम्यग्दृष्टि जीव स्वामी है जिसने मिथ्यात्व गुणस्थानमें मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध कर अन्तर्मुहर्त में वेदकसम्यक्त्व प्राप्त किया है। तथा कषायोंकी उत्कृष्ठ स्थिति बाँधकर जो एक आवलिकालके बाद उसे नौ नोकषायोंमें संक्रान्त कर रहा है वह नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिका स्वामी है। सामान्यसै मोहनीयकी जघन्य स्थितिविभक्ति क्षपक सूक्ष्मसाम्परायके अन्तिम समयमें होती है, इसलिए वह इसका स्वामी है। उत्तरप्रकृतियोंकी अपेक्षा मिथ्यात्वकी क्षपणा करनेवाला जीव उसकी क्षपणाके अन्तिम समयमें उसकी जघन्य स्थितिविभक्तिका स्वामी है। इसी प्रकार सम्यक्त्व, सम्यग्मिध्यात्व, सोलह कषाय और छह नोकषायकी जघन्य स्थितिविभक्ति का स्वामी अपनी अपनी क्षपणाके अन्तिम समयवर्ती जीवको जानना चाहिए। मात्र सम्यग्मिथ्यात्वका यह जघन्य स्वामित्व अपनी उद्वेलनाके अन्तिम समयमें भी बन जाता है। तथा तीन वेदकी जघन्य स्थितिविभक्तिका स्वामी स्वोदयसे क्षपकश्रेणि पर चढ़ा हुआ अन्तिम समयवर्ती जीव है। यह ओघसे स्वामित्व कहा है। मार्गणाओंमें अपनी अपनी विशेषता जानकर यह स्वामित्व घटित कर लेना चाहिए । जहाँ जिन प्रकृतियोंकी क्षपणा सम्भव हो वहाँ उसका विचार कर और जहाँ क्षपणा सम्भव न हो वहाँ अन्य प्रकारसे जघन्य स्वामित्व घटित करना चाहिए। तथा उत्कृष्ट स्वामित्वमें भी भपनी अपनी विशेषताको जानकर वह ले आना चाहिए ।
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