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विषय - परिचय
प्रस्तुत अधिकारका नाम स्थितिविभक्ति है । कर्मका बन्ध होनेपर जितने कालतक उसका कर्मरूपसे अवस्थान रहता है उसे स्थिति कहते हैं । स्थिति दो प्रकार की होती है - एक बन्धके समय प्राप्त होनेवाली स्थिति और दूसरी संक्रमण, स्थितिकाण्डकघात और अधः स्थितिगलना आदि होकर प्राप्त होनेवाली स्थिति । केवल बन्धसे प्राप्त होनेवाली स्थितिका विचार महाबन्ध में किया है । मात्र उसका यहाँपर विचार नहीं किया गया है । यहाँ तो बन्धके समय जो स्थिति प्राप्त होती है उसका भी विचार किया गया है और बन्धके बाद अन्य कारणोंसे जो स्थिति प्राप्त होती है या शेष रहती है उसका भी विचार किया गया है । मोहनीय कर्मकी उत्तर प्रकृतियाँ अट्ठाईस हैं। एक बार इन भेदोंका आश्रय लिए बिना और दूसरी बार इन भेदोंका आश्रय लेकर प्रस्तुत अधिकार में विविध अनुयोगद्वारोंका आश्रय लेकर स्थितिका सांगोपांग विचार किया गया है । वे अनुयोगद्वार ये हैं- अद्धाच्छेद, सर्वविभक्ति, नोसर्वविभक्ति, उत्कृष्ट विभक्ति, अनुत्कृष्टविभक्ति, जघन्यविभक्ति, अजघन्यविभक्ति, सादिविभक्ति, अनादिविभक्ति, ध्रुवविभक्ति, अध्रुवविभक्ति, एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्व, काल, अन्तर, नाना जीवोंकी अपेक्षा भङ्गविचय, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, सन्निकर्ष भाव और अल्पबहुत्व । मूलप्रकृति स्थितिविभक्ति एक है, इसलिए उसमें सन्निकर्ष अनुयोगद्वार सम्भव नहीं है, इसलिए इस अधिकारको उत्तर प्रकृतियोंकी अपेक्षा ही जानना चाहिए ।
अद्धाच्छेद - अद्धा शब्द स्थितिके अर्थ में कालवाची है । तदनुसार अद्धाच्छेदका अर्थ कालविभाग होता है । यह जघन्य और उत्कृष्ट भेदसे दो प्रकारका है । मोहनीय सामान्यका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सत्तर htड़ाकोड़ी सागरप्रमाण होता है यह विदित है, इसलिए मोहनीय सामान्यका उत्कृष्ट अद्धाच्छेद उक्तप्रमाण कहा है। इसमें सात हजार वर्ष आबाधाकालके भी सम्मिलित हैं, क्योंकि ऐसा नियम है कि कर्मका बन्ध होते समय स्थितिबन्ध के अनुसार उसकी आबाधा पड़ती है । यदि अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरके भीतर स्थितिबन्ध होता है तो अन्तर्मुहूर्त प्रमाण आबाधा पड़ती है और सौ कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण स्थितिबन्ध होता है तो सौ वर्षप्रमाण आबाधा पड़ती है। आगे इसी अनुपात से आबाधाकाल बढ़ता जाता है, इसलिए सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण स्थितिबन्ध के होने पर उसका आबाधाकाल सात हजार वर्षप्रमाण बतलाया है । विशेष खुलासा इस प्रकार है - किसी भी कर्मका बन्ध होने पर वह अपनी स्थिति के सब समयों में विभाजित हो जाता है । मात्र बन्ध समय से लेकर प्रारम्भके कुछ समय ऐसे होते हैं जिनमें कर्मपुब्ज नहीं प्राप्त होता । जिन समयों में कर्मपुंज नहीं प्राप्त होता उन्हें आबाधा काल कहते हैं । इस आबाधाकालको छोड़कर स्थितिके शेष समयों में उत्तरोत्तर विशेष हीन क्रमसे कर्मपुञ्ज विभाजित होकर मिलता है । उदाहरणार्थ मोहनीय कर्मका सप्तर कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण स्थितिबन्ध होने पर बन्ध समय से लेकर सात हजार वर्ष तक सब समय खाली रहते हैं । उसके बाद अगले समयसे लेकर सत्तर कोड़ाकोड़ो सागर तकके कालके जितने समय होते हैं, विवक्षित मोहनीयकर्मके उतने विभाग होकर सात हजार वर्ष के बाद, प्रथम समयके बटवारे में जो भाग आता है वह सबसे बड़ा होता है, उससे अगले समयके बटवारे में जो भाग आता है वह उससे कुछ हीन होता है । इसी प्रकार सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरके अन्तिम समय तक जानना चाहिए । यहाँ इसना विशेष जानना चाहिए कि यहाँ पर मोहनीयको जो उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर कही है वह सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरके अन्तिम समयके बटवारे में प्राप्त होनेवाले द्रव्यको अपेक्षा से कही । वस्तुतः आबाधाकाल के बाद जिस समयके बटवारे में जो द्रव्य आता है उसकी उतनी ही स्थिति जाननी चाहिए । स्थिति के अनुसार बटवारेका यह क्रम सर्वत्र जानना चाहिए । इस प्रकार मोहनीय कर्मके उत्कृष्ट अद्धाच्छेदका विचार किया । मोहनीयकर्मका जधन्य अद्धाच्छेद एक समयप्रमाण है । यह क्षपक सूक्ष्मसाम्परायिक जीवके अन्तिम समय में सूक्ष्मलोभकी उदयस्थिति के समय प्राप्त होता है । मोहनीयको उत्तर प्रकृतियोंकी अपेक्षा मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अद्धाच्छेद मोहनीय सामान्यके समान सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर है । तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका
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