Book Title: Kahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Author(s): Muktichandravijay, Munichandravijay
Publisher: Vanki Jain Tirth

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Page 7
________________ पुनः प्रकाशन के प्रसंग पर/ सुविधांजन-स्पर्शथी आंख ज्यारे, अविद्यानुं अंधारूं भारे विदारेर जुए ते क्षणे योगीओ ध्यान-तेजे, निजात्मा विषे श्रीपरात्मा सहेजे। Line - ज्ञानसार १४/८ (गुर्जर पद्यानुवाद) ज्ञा ३ ____ ज्ञानसार में इस प्रकार आते वर्णन के मुताबिक ही पूज्यश्री का जीवन था, यह सब लोग अच्छी तरह से जानते हैं । ये महायोगी अपने हृदय में भगवान को देखते थे, जब कि लोग उनमें भगवान को देखते थे । ऐसे सिद्धयोगी की वाणी सुनने-पढने के लिए लोग लालायित हों - यह स्वाभाविक है । _ पूज्यश्री की उपस्थिति में ही 'कहे कलापूर्णसूरि' गुजराती पुस्तक के चारों भाग प्रकाशित हो चुके थे, जिज्ञासु आराधक लोग द्वारा अप्रतिम प्रशंसा भी पाये हुए थे । विगत बहुत समय से आराधकों की ओर से इन पुस्तकों की बहुत डीमांड थी, किन्तु प्रतियां खतम हो जाने पर हम उस डीमांड को सन्तुष्ट नहीं कर सकते थे । हिन्दी प्रथम भाग प्रकाशित होने पर हिन्दीभाषी लोगों की डीमांड आगे के भागों के लिए भी बहुत ही थी । शंखेश्वर तीर्थ में वि.सं. २०६२, फा.व. ६, दि. १९-०२२००६ को पूज्यश्री के गुरुमंदिर की प्रतिष्ठा के पावन प्रसंग के उपलक्ष में प्रस्तुत पुस्तक के चारों भाग हिन्दी और गुजराती में एकसाथ प्रकाशित हो रहे है, यह बहुत ही आनंदप्रद घटना है । इस ग्रंथ के पुनः प्रकाशन के मुख्य प्रेरक परम शासन प्रभावक वर्तमान समुदाय-नायक पूज्य आचार्यदेव श्रीमद् विजयकलाप्रभसूरीश्वरजी म.सा., विद्वद्वर्य पू. पंन्यासप्रवरश्री कल्पतरुविजयजी गणिवर एवं प्रवक्ता पू. पंन्यासप्रवरश्री कीतिचन्द्रविजयजी गणिवर - आदि को हम वंदन करते है । इन ग्रंथों का बहुत ही प्रयत्नपूर्वक अवतरण-संपादन व पुनः SGESGE

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