Book Title: Jodhpur Hastlikhit Granthoka Suchipatra Vol 01
Author(s): Seva Mandir Ravti
Publisher: Seva Mandir Ravti

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Page 9
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जन प्रागम ग्रन्थों को जैन मान्यतानुसार अंगसूत्र और अंगबाह्य सूत्र (पांच उप विभागों में विभाजित) का जो क्रम नियत है तदनुसार लिखा गया है और यह विषयसूची से स्पष्ट हो जाता है। लेकिन विभागीकरण की तरह नामकरण में भी एकरूपता नहीं हो सकती क्योंकि भिन्न-2 अक्षर संयोजना से ग्रन्थ नाम का प्रथम प्रक्षर भी भिन्न हो जाता है। उदाहरण स्वरूप "गौड़ी पार्श्व स्तोत्र" और "चिंतामरिण पार्श्व स्तोत्र" को हमने क्रमश: "पार्श्व (गौड़ी) स्तोत्र' और पार्श्व (चिंतामणि) स्तोत्र ऐसा नाम देकर दोनों स्तोत्रों को अक्षर “पा" के नीचे संकलित करना अभीष्ट समझा है। कई बार एक ग्रन्थ विद्वत् जगत् में एक से अधिक नामों से प्रचलित होता है जैसे 'दर्शन-सत्तरी' को 'सम्यक्त्व सत्तरी' भी कहते हैं और विचार षटत्रिशिका "चविशंतिदण्डक' "चौवीसदण्डक' या केवल "दण्डक" के नाम से भी प्रसिद्ध है। उपरोक्त कठिनाइयों से उत्पन्न समस्याओं के निराकरण हेतु पाठकों से और विशेषतया शोधार्थी पाठकों से हमारा निवेदन है कि अभिलषित ग्रन्थ की प्रविष्टि के बारे में निराम होने के पहले संभावनीय विविध विकल्पों के अनुसार सूचीपत्र को अच्छी प्रकार से ढूंढें तथा लेवक परिशिष्ट की भी मदद लें । इस वास्ते पूरी विषय सूची को हृदयंगम करके तथा प्रविष्टि के सभी स्तम्भों को देखना व इस प्राक्कथन संकेत' को भी ध्यान पूर्वक पढ़ना आवश्यक है। सूची पत्रों में विभागी करण, विषय सूची, अकारादिक्रमणिका इत्यादि सुविधा के हेतु हैं परन्तु प्रमादवश उसे ही एक मात्र प्राधार या बहाना बना लेंगे तो विद्यमान होते हुवे भी ग्रन्थ हाथ नहीं लगेगा। स्तम्भ 3A: इसमें ग्रन्थ का नाम रोमन लिपि में दे दिया है ताकि देवनागरी लिपि न जानने वालों को कुछ सुविधा हो जाय । तथा उनकी सहलियत के लिये ही सूनी पत्र में सर्वत्र भारतीय अंकों का अन्तर्राष्ट्रीय रूप ही प्रयोग में लिया गया है। स्तम्भ 4-ग्रन्थ कर्तादि का नाम: इस स्तम्भ में ग्रन्थकार का नाम व उसके गुरु या पिता का नाम और उसकी प्राम्नाय भी दे दी गई है ताकि पूरा नाम परिचय हो जावे। यदि ग्रन्थ वृति आदि सहित होने से दो अथवा दो से अधिक लेखकों की कृति है तो उन दोनों या सबका नाम व परिचय दिया गया है। उनमें क्रमानुसार प्रथम नाम मूल लेखक का है और करके आगे वृत्तिकार आदि का नाम लिखा गया है । जहाँ लेखक का नाम प्रति में नहीं है वहाँ स्तम्भ को खाली ही रखा है। लेकिन जहाँ पक्का निश्चय हो गया है कि लेखक का नाम मिलने वाला नहीं है वहाँ 'अज्ञात' शब्द लिख दिया है। कहीं-कहीं साथ में ग्रन्थ की रचना के वर्ष का उल्लेख भी किया है यद्यपि अच्छा यह रहता कि रचना समय की जानकारी एक स्वतन्त्र स्तम्भ में दी जाती। स्तम्भ 5-स्वरूप : इस स्तम्भ में सूचना दो दृष्टिकोणों से दी गई है। प्रथमतः यह बताया गया है कि ग्रन्थ गद्य या पद्य या चंपू या नाटक या सारिणी या तालिका या यंत्र आदि किस प्रकार का है तथा दूसरे में यह बताया गया है कि ग्रन्थ का स्वरूप क्या है-मूल, नियुक्ति चूरिंग, भाष्य, वृत्ति, दीपिका, अवचूरि, टब्बा (स्तबक), बालाविबोध, वाचना, अन्तर्वाच्य, व्याख्यान, टीका, विवरण, स्वोपज्ञ विवृत्ति प्रादि किस किस्म या जाति का है। प्रायः करके प्रकार या स्वरूप को दर्शाने वाले उपरोक्त शब्दों के प्रथम अक्षर को लिख दिया है जिसका तात्पर्य उस शब्द से लगा लेना चाहिये । बहुधा एक ही प्रति में दो किंवा दो से अधिक स्वरूप साथ में हैं तो वहाँ उतने संकेत दे दिये हैं तथा ग्रन्थ का नाम लिखते हुवे भी कहीं-कहीं यह उल्लेख कर दिया है। उदाहरण:-"प्रवचन सारोद्धार सहवृत्ति" म् (प)+तु (ग)= अर्थात् मूल पद्य में तथा वृत्ति सहित जो गद्य में है। सामान्य पाठक की सुविधा के लिये ग्रन्थों के स्वरूप का स्पष्टीकरण दे देना उचित होगा जो निम्न प्रकार है। For Private and Personal Use Only

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