Book Title: Jivan Drushti
Author(s): Padmasagarsuri
Publisher: Arunoday Foundation

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Page 7
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir निवेदन भारतीय चिन्तन और दर्शन की प्रधानता हैं कि सभी दर्शनो का आधार-सूत्र है. सूत्र छोटे से छोटा वाक्यांश है जो अर्थ में पूर्ण स्पष्ट हो तथा फिर उसकी पुनरावृत्ति न की गई हो. सूत्रों का स्पष्ट अर्थ-वोध साधनागम्य है और वहाँ साधारण मस्तिष्क की पैठ नहीं होती है. तप और साधना के बल पर आचार्य-सन्त उन सूत्रों का एवं शास्त्रों का साक्षात्कार करते हैं. शास्त्र - साक्षात्कार की अभिव्यक्ति ही प्रवचन है. प्रवचन की आधार भूमि पूर्णानुभूति है और इसीलिए सन्त के पास उपासना और साधना की कुंजी है. उपासना का अर्थ है-गुरू का सामीप्य प्राप्त कर जीवन के रहस्य की खोज या जीवन के अर्थ की खोज. और यही अन्वेषण जीवन की सार्थकता प्रदान करता है. साधना का अर्थ है स्वयं को अनुशासित करना या मस्तिष्क के मूल केन्द्र में ध्यान केन्द्रित करना. यह उपासना और साधना ही योग है जो अपर शब्द को पर शब्द से जोड़ने का सामर्थ्य देती है, दिक्-काल वाधित जीवन में रहते हुए फल से अनासक्त हो जाना ही जीवन मुक्ति है. विश्व में रहते हुए ग्राह्य-ग्राहक भेद का मिट जाना ही अपरिग्रह है. इसे प्राप्त करने के लिए आचार्य का सामीप्य एवं आचार्य जिवा से निःसृत शब्द ही सीढियाँ है. इसीलिए सत्संग का विशेष महत्व है. ‘सतां संगो हि भेषजं' सत्संग ही औषधि है. संसार रोग है, अरिहंत रोग मुक्ति और औषधि संत-सामीप्य और संतवाणी है. संतवाणी ही सत् वाणी है. शास्त्रों के गृह्य सूत्रों को सर्वसाधारण की भाषा में वोधगम्य करना संत की विशेषता है. कवीर, नानक तथा रविदास जैसे संतों ने भाषा में वुद्धि का प्रयोग कम, अनुभूत सत्य का प्रयोग अधिक किया है. इसीलिए उनकी वाणी में शक्ति है, प्रभाव है, प्रवाह है, तट तक पहुंचाने का. वर्तमान युग में संत का चातुर्मास एक अवसर है, पर्व है. पर्व का अर्थ है संधि. संधि वंधन और मुक्ति का संयुक्तस्थल है. एक ओर बंधन तथा दूसरी ओर मुक्ति. विना संधि स्थल पर आये मुक्ति असम्भव है. चौराहे पर आदमी भ्रमित भी होता है और सही मार्ग भी प्राप्त कर लेता है. लाभ की प्राप्ति अपनी ही शक्ति सामर्थ्य पर आश्रित होती है. संत का कार्य दिशाबोध देना होता है, चलना स्वयं को होता है. आचार्य श्रीमद् पद्मसागरसूरीश्वरजी महाराज साहव शास्त्र के मूर्त रूप है. स्वार्थ मुक्त है. उनके प्रवचन में स्वार्थ नहीं, जन-परमार्थ की भावना है. शास्त्रों के जटिल सूत्रों को उनकी वाणी ने सरलता प्रदान की है. उनकी वैखरी में वह अविरल प्रवाह है जिसकी अध्यात्म गंगा में आदमी वह उठता है. उनकी जिह्वा निःसृत पुण्य सलिला पापनाशिनी एवं शांति प्रदायिनी है. यह साधक की सामर्थ्य पर निर्भर है कि वह संत की वाणी से कितना लाभ उठा पाता For Private And Personal Use Only

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