Book Title: Jinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal

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Page 8
________________ सम्यग्दर्शन : संपादकीय दर्शनमोहत्रिक के क्षय, उपशम या क्षयोपशम से प्रकट होता है। इस सम्यग्दर्शन को आत्मविनिश्चय एवं ग्रंथिभेद आदि शब्दों से भी प्रकट किया गया है। इस निश्चय सम्यग्दर्शन के व्यवहार में पांच लक्षण पाए जाते हैं-१. शम २ संवेग ३ निर्वेद ४. अनुकम्पा और ५ आस्तिक्य। ये पाँचों लक्षण निश्चय सम्यग्दर्शन की क्रियात्मक परिणति है जो व्यवहार में परिलक्षित होती है। शम का मूलरूप प्राकृत में 'सम' है जो शम, सम एवं श्रम का सूचक है। क्रोधादि में कमी शम है, समभाव का आचरण 'सम' एवं श्रमण की श्रमशीलता 'श्रम' है। मोक्ष की अभिलाषा ‘संवेग' एवं संसार से वैराग्य 'निर्वेद' है। दुःखियों के दुःख के प्रति संवेदनशीलता एवं दया ‘अनुकम्पा' है तथा आत्मा व देव, गुरु एवं धर्म पर आस्था 'आस्तिक्य' है। इस आस्तिक्य को तत्वार्थश्रद्धान भी कहा गया है। सम्यग्दर्शन का तत्त्वार्थश्रद्धान लक्षण अत्यन्त प्रसिद्ध है। यह उत्तराध्ययनसूत्र २८.१५ (तहियाणं तु भावाणं) एवं तत्त्वार्थसूत्र १.१ (तत्त्ववार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्) में स्पष्टरूपेण प्रतिपादित है। तत्त्वार्थ पर वस्तुत: जीवादि तत्त्वों पर यथार्थ श्रद्धा है। जैनदर्शन में तत्त्व सात या नौ माने गए हैं । जीव, अजीव, आस्रव, बंध संवर, निर्जरा एवं मोक्ष ये सात तत्त्व हैं तथा इनमें पुण्य एवं पाप को मिलाने पर तत्त्वों की संख्या नौ हो जाती है। इन तत्त्वों के स्वरूप को यथार्थ रूपेण समझकर उन्हें स्वीकार करना ही उनपर श्रद्धान करना है। यही सम्यग्दर्शन है। यह सम्यग्दर्शन निश्चय एवं व्यवहार दोनों प्रकार का हो सकता है। जब तक तत्त्वार्थों के स्वरूप का आत्मिक स्तर पर भेदज्ञान नहीं हुआ है तब तक उन पर हुई बौद्धिक श्रद्धा व्यवहार सम्यग्दर्शन है तथा आत्म-अनात्म विवेक निश्चय सम्यग्दर्शन का रूप है। ___ प्रश्न यह होता है कि सम्यग्दृष्टि या दर्शन को श्रद्धा कहना किस प्रकार उचित है? बौद्धदर्शन में सम्यग्दृष्टि एवं श्रद्धा का प्रयोग भिन्न-भिन्न अर्थों में हुआ है। बौद्धदर्शन में भी जैनदर्शन की भांति सम्यक् दृष्टि को मुक्तिमार्ग की पहली सीढ़ी स्वीकार किया गया है। उसके बिना न शील की प्राप्ति मानी गई और न समाधि की । बौद्धदर्शन में वस्तुत: चार आर्यसत्यों को समझना ही सम्यक् दृष्टि कहा गया (सम्मादिट्ठि-सुत्तन्त-मज्झिमनिकाय१.१.९) । श्रद्धा को आध्यात्मिक विकास की पांच शक्तियों (इन्द्रियों) में प्रथम बताया गया तथा श्रद्धा से वीर्य, स्मृति, समाधि एवं प्रज्ञा में क्रमिक सम्बन्ध बतलाया गया। इस साधना-क्रम में श्रद्धा प्रथम है एवं प्रज्ञा अन्तिम है ।सम्यक दृष्टि को जहां प्रज्ञा स्कन्ध में सम्मिलित किया गया वहां श्रद्धा का परिणाम प्रज्ञा को बतलाया गया। इस प्रकार श्रद्धा एवं सम्यक् दृष्टि बौद्ध धर्म में भिन्न हैं। किन्तु बुद्ध का एक वचन श्रद्धा एवं सम्यक् दृष्टि को एक ही अर्थ में भी पिरो देता है। बुद्ध ने कहा 'भिक्षओं जिस समय आर्य श्रावक दराचरण को पहचान लेता है दराचरण के मल क कारण को पहचान लेता है, सदाचरण को पहचान लेता है, सदाचरण के मूल कारण को पहचान लेता है, तब उसकी दृष्टि सम्यक् कहलाती है। उसकी इस धर्म में अचल श्रद्धा उत्पन्न हो गई है और वह इस धर्म में आ गया है।' यहां पर श्रद्धा एवं सम्यग्दृष्टि एकार्थक प्रतीत हो जैनधर्म में तो सम्यग्दृष्टि का श्रद्धा अर्थ प्रसिद्ध है। मोक्ष के प्रयोजन में दर्शन का श्रद्धा अर्थ ही आचार्यों ने मान्य किया है। वस्तुत: जैसी अन्त:दृष्टि होती है वैसी ही मान्यता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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