Book Title: Jinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996 Author(s): Dharmchand Jain Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal View full book textPage 6
________________ सम्पादकीय ___ डॉ. धर्मचन्द जैन संसार में प्रत्येक जीव जीवन, जगत् सुख-दुःख आदि के सम्बन्ध में कोई न कोई व्यक्त या अव्यक्त मान्यता, श्रद्धा, विश्वास या धारणा लिए हुए है। यह मान्यता, विश्वास, श्रद्धा या धारणा ही उसकी दृष्टि है। इस दृष्टि के अनुसार प्रत्येक जीव एक ही घटना के प्रति भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण रखते हैं तथा भिन्न-भिन्न प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं। कोई एक घटना में सुख का अनुभव करता है तो दूसरा उसी घटना में दुःख का अनुभव करता है । एक उसे त्याज्य समझता है तो दूसरा उसे ग्राह्य मानता है। एक की दृष्टि मोह की प्रगाढता से ग्रस्त रहती है तो दूसरे की दृष्टि उससे निरासक्त होती है। एक धन-सम्पत्ति, भूमि भवन, आदि को प्राप्त कर उन्हें पकड़े रखने में हित मानता है तो दूसरा उनकी तुच्छता समझकर उन्हें त्याग देता है। इस प्रकार यह दृष्टि जीव की आन्तरिक श्रद्धा या मान्यता को व्यक्त करती है। ___ आगम में दृष्टि तीन प्रकार की कही गई है-सम्यग्दृष्टि २. मिथ्यादृष्टि और ३. मिश्रदृष्टि । ये तीनों दृष्टियां जीव की आन्तरिक जीवन-दृष्टि की परिचायक हैं। प्रत्येक जीव में ऐसी कोई न कोई अन्त: प्रेरणा एवं अन्त:दृष्टि होती है जिसके अनुसार वह जीवन जीता है। वैसे तो प्रत्येक जीव की दृष्टि एक दूसरे से भिन्न ही होती है, इसलिए दृष्टि के अनन्त भेद भी किए जा सकते हैं, किन्तु उन अनन्तदृष्टियों का वर्गीकरण स्थानांगसूत्र, प्रज्ञापना सूत्र आदि आगमों में तीन दृष्टियों में किया गया है। लोक में कुछ जीव सम्यग्दृष्टियुक्त होते हैं, कुछ जीव मिथ्यादृष्टि युक्त होते हैं तथा शेष कुछ जीव मिश्रदृष्टि वाले होते हैं। __ प्रश्न यह होता है कि किसे सम्यग्दृष्टि कहा जाये, किसे मिथ्यादृष्टि एवं किसे मिश्रदृष्टि ? स्थूलदृष्टि से कहा जाये तो जो जीव संसार में सुख समझते हैं, विषय भोगों में रमण करना अच्छा समझते हैं या मूढ बने हुए हैं वे मिथ्या दृष्टि होते हैं। जो जीव इनसे ऊपर उठकर मोक्ष-सुख को आत्मिक एवं वास्तविक सुख समझकर उसके अभिलाषी होते हैं वे सम्यग्दृष्टि होते हैं। जब सम्यग्दृष्टि एवं मिथ्यादृष्टि न हो तो उसे सम्यग्मिथ्यादृष्टि या मिश्रदृष्टि कहते हैं। दृष्टि की सम्यक्ता एवं इसके मिथ्यात्व का मापदण्ड जैन-ग्रंथों में मोह की कमी या आधिक्य को स्वीकार किया गया है। सम्यग्दृष्टि जीव वे हैं जिन्होंने प्रगाढ़ मोह को शिथिल कर दिया है। पारिभाषिक शब्दावली में कहें तो सम्यग्दृष्टि जीव वे हैं, जिन्होंने दर्शनमोहनीय की तीन प्रकृतियों (सम्यक्त्वमोहनीय, मिथ्यात्व मोहनीय एवं मिश्रमोहनीय) का क्षय, उपशम या क्षयोपशम कर दिया है तथा चारित्रमोहनीय के अनन्तानुबन्धीचतुष्क का क्षय कर दिया है। अनन्तानुबन्धी चतुष्क में उन क्रोध, मान, माया एवं लोभ की गणना होती है,जिनका प्रभाव प्रगाढतम होता है। मोह का यह आचरण सम्बन्धी रूप है जो क्रोधादि के माध्यम से प्रकट होता है। दर्शनमोहनीय मोह का दृष्टिगत या विश्वासगत रूप है, यह अधिक भयंकर है। दृष्टि ही मलिन हो तो स्वच्छता नजर नहीं आ सकती। अन्त:दृष्टि में मलिनता को ही मिथ्यात्व कहा गया है। जैसी दष्टि होती है प्रायः सष्टि वैसी ही प्रतीत एवं निर्मित होती है। नेत्रों पर यदि हरा चश्मा चढ़ा लिया जाये तो बाहर सब कुछ हरा ही दिखाई देता है तथा व्यवहार भी फिर उसी के अनुसार किया जाता है। जब बाह्य नेत्रदृष्टि का भी इतना प्रभाव परिलक्षित होता है तो अन्त:दृष्टि की तो बात ही क्या ? भीतर में दष्टि . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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