Book Title: Jinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal

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Page 7
________________ vi जिनवाणी- विशेषाङ्क भोग की है तो सबकुछ भोग्य ही नजर आता है, भीतर में भोगों को त्याज्य समझ लिया है, तो सारे भोग तुच्छ एवं त्याज्य नजर आते हैं । दृष्टि की निर्मलता को सम्यग्दृष्टि कहा गया है । जब दृष्टि सम्यक् से पुनः मलिन होने लगे, किन्तु पूर्णत: मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं हो, ऐसी मिश्रित अवस्था को मिश्र दृष्टि कहा जाता है। मिश्रदृष्टि में जीव अन्तर्मुहूर्त से अधिक काल तक नहीं रहता। इसलिए हम प्राय: मिथ्यादृष्टि एवं सम्यग्दृष्टि अवस्था में ही जीते हैं । इस समय दृष्टि नैर्मल्य के आधार पर आकलन किया जाये तो मिथ्यादृष्टि जीव ही अधिक हैं । एकेन्द्रिय से लेकर चतुरिन्द्रिय जीव तो प्राय: मिथ्यादृष्टि होते हैं, किन्तु पंचेन्द्रियों में मनुष्यों की चर्चा की जाये तो वे भी अधिकतर मिथ्यादृष्टि ही हैं। 1 दृष्टि की निर्मलता में संकीर्ण स्वार्थ नहीं रहता और न ही अपना एवं दूसरों का अहित करने की बुद्धि होती है । निर्मलदृष्टि मनुष्य सत्-असत् को जानता है एवं उसे वैसा स्वीकार भी करता है । उसका जीवन स्व-पर कल्याण की ओर केन्द्रित होता है । वह पौगलिक वस्तुओं की प्राप्ति में ही जीवन की पूर्णता नहीं मानता। उसे इनकी क्षणभंगुरता एवं विनश्वरता का बोध रहता है । जीवन के प्रति उसका दृष्टिकोण साफ होता है। अनुकूलता एवं प्रतिकूलता में वह सम रहता है । भोगों से उसका आकर्षण छूट जाता है । अज्ञानियों एवं तज्जन्य दुःखों से ग्रस्त जनों पर उसके हृदय में अनुकम्पा होती है। अपने पर उसका विश्वास होता है, जिसे आत्मविश्वास तथा आत्म श्रद्धान कह सकते हैं । 'दृष्टि का अपर नाम 'दर्शन' भी है। संस्कृत में ये दोनों शब्द 'दृश' (देखना) धातु से निष्पन्न हुए हैं। 'दृश्' धातु से जब 'क्तिन्' प्रत्यय किया जाता है तो 'दृष्टि' शब्द निष्पन्न होता है तथा जब 'ल्युट' (अन) प्रत्यय किया जाता है तो 'दर्शन' शब्द निष्पन्न होता है । इस प्रकार दृष्टि एवं दर्शन शब्द एक ही धातु से निष्पन्न हैं । दर्शन भी जैनदर्शन में दो प्रकार के हैं- एक तो दर्शन वह जो दर्शनावरणीय कर्म के क्षय अथवा क्षयोपशम से प्रकट होता है तथा दूसरा दर्शन वह है जो दर्शनमोहनीय कर्म के क्षय, उपशम या क्षयोपशम से प्रकट होता है। यहां पर 'सम्यग्दर्शन' का अभिप्राय दर्शनमोह कर्म के क्षयादि से प्रकट 'दर्शन' से है 1 इस सम्यग्दर्शन के लिए 'सम्यक्त्व (सम्मत्तं) शब्द का प्रयोग भी आगम बहुश: हुआ है । वैसे सम्यक्त्व शब्द सम्यक्पने या यथार्थता का द्योतक है जिसका दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र तीनों के साथ प्रयोग होता है यथा-सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र । तत्त्वार्थसूत्र में 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग: सूत्र में स्थित सम्यक् का दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र तीनों के साथ अन्वय हुआ है । फिर भी सम्यक्त्व (सम्मत्तं) शब्द सम्यग्दर्शन के अर्थ में ही रूढ है, क्योंकि तीनों में सम्यग्दर्शन की प्रधानता है । दर्शन सम्यक् होने पर ही ज्ञान सम्यक् होगा और ज्ञान सम्यक् होने पर ही चारित्र । सम्यक् होगा । सम्यग्दर्शन के दो रूप प्रसिद्ध हैं - १. निश्चय सम्यग्दर्शन और २. व्यवहार सम्यग्दर्शन । निश्चय सम्यग्दर्शन जहां आत्मिक गुण के रूप में प्रकट होता है, वहां व्यवहार सम्यग्दर्शन उसकी क्रियात्मक परिणति है । व्यवहार सम्यग्दर्शन साधन एवं निश्चय सम्यग्दर्शन को साध्य भी माना गया है, इसलिए निश्चय सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हेतु व्यवहार सम्यग्दर्शन का आलम्बन लेना होता है। निश्चय सम्यग्दर्शन तो वही है जो अनन्तानुबन्धीचतुष्क एवं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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