Book Title: Jinabhashita 2009 10
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 5
________________ पायणाग्गिसंधुक्खण- जालण-सूदि-सूदाणादिवावारेहि जीवविराहणाए विणा दाणाणुववत्तीदो। तरुवरछिंदणछिंदावणिट्टपादण-पादावण-तद्दहण-दहावणादिवावारेण छज्जीवविराहणहेउणा विणा जिणभवण-करणकरावणण्णहाणुववत्तीदो। ण्हवणोवलेवण संमज्जण-छुहावण-फुल्लारोवण-धूवदहणादिवावारेहि जीववहाविणाभावीहि विणा पूजाकरणाणुववत्तीदो च।" (जयधवला / क० पा० / भाग १/ गाथा १/ अनुच्छेद ८२ / पृष्ठ ९१)। अनुवाद- शंका "चौबीसों तीर्थंकर सावध (सदोष) हैं, क्योंकि उन्होंने षटकायिकजीवों की विराधना के कारणभूत श्रावकधर्म का उपदेश दिया है। उदाहरणार्थ- दान, पूजा, शील और उपवास ये चार श्रावकों के धर्म हैं। यह चारों प्रकार का श्रावकधर्म छह कार्य के जीवों की विराधना का कारण है, क्योंकि भोजन पकाना. पकवाना. अग्नि का सलगाना. अग्नि का जलाना, अग्नि का खतना और खतवाना आदि व्यापार से होनेवाली जीव विराधना के बिना आहार-दान संभव नहीं। उसी प्रकार वृक्ष का काटना और कटवाना, ईंटों का गिराना और गिरवाना तथा उनको पकाना और पकवाना आदि छह काय के जीवों की विराधना के कारणभूत व्यापार के बिना जिनभवन का निर्माण करना अथवा करवाना असंभव है। तथा प्रक्षाल करना, अवलेव करना, सम्मान करना, चन्दन लगाना, फूल चढ़ाना और धूप का जलाना आदि जीववध के अविनाभावी व्यापारों के बिना पूजा करना नहीं बन सकता।" वीरसेन स्वामी इस शंका का निवारण करते हुए लिखते हैं कि "यद्यपि तीर्थंकर श्रावकों को उपर्युक्त जीवविराधना-कारक दानपूजादि क्रियाओं को करने का उपदेश देते हैं, तो भी उन्हें कर्मबन्ध नहीं होता, क्योंकि जिनदेव के कर्मबन्ध के कारणभूत मिथ्यात्व, असंयम और कषाय प्रत्ययों का अभाव हो जात है, इसलिए सातावेदनीय को छोड़कर शेष कर्मों के बन्ध का अभाव हो जाता है।" देखिए उनके शब्द . "एत्थ परिहारो उच्चदे। तं जहा-जइ वि एवमुवदिसंति तित्थयरा तो वि ण तेसि कम्मबंधो अस्थि, तत्थ मिच्छत्तासंजमकसायपच्चयाभावेण वेयणीयवज्जासेसकम्णाणं बंधाभावादो।" (जयधवला / क० पा० । भाग १/ अनुच्छेद ८३ / पृष्ठ ९२)। इस कथन से स्पष्ट होता है कि दानपूजादि धार्मिक क्रियाओं के लिए की जानेवाली उपर्युक्त जीवविराधक क्रियाएँ कर्मबन्ध का कारण हैं। उन्हें करने का उपदेश देने से तीर्थंकरों को बन्ध इसलिए नहीं होता कि उनके कर्मबन्ध के कारणभूत मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और प्रमाद प्रत्ययों का अभाव हो जाता है। इससे यह बिना कहे ही फलित होता है कि जिन मनुष्यों के उक्त चार प्रत्ययों का अभाव नहीं हुआ, उन्हें उपर्युक्त क्रियाओं से बन्ध अवश्य होता है। इससे सिद्ध है कि दानपूजादि के लिए की जानेवाली उपर्युक्त जीवविराधक क्रियाएँ आरंभ हैं। वीरसेनस्वामी ने निम्नलिखित प्राचीन गाथा (ज.ध./ क. पा./ भा. १ / पृ. ९६) उद्धृत कर उनके आरंभ होने का स्पष्ट शब्दों में कथन किया है तित्थयरस्स विहारो लोअसुहो णेव तत्थ पुण्णफलो। वयणं च दाणपूआरंभयरं तं ण लेवेइ॥ ५४॥ अनुवाद- "तीर्थंकर का विहार संसार के लिये सुखकर है, परन्तु उससे तीर्थंकर को पुण्यफल प्राप्त नहीं होता। तथा उनके दान-पूजा आदि आरंभ करने का उपदेश देनेवाले वचन, उनके लिए पापबन्ध के कारण नहीं हैं।" इस तरह जिनागम में दान-पूजा आदि धार्मिक क्रियाओं को स्पष्ट शब्दों में आरंभ कहा गया है। 'आरंभ' कहे जाने से सिद्ध है कि वे प्रमत्तयोगपूर्वक अर्थात् स्थावरकायिक जीवों की रक्षा का प्रयत्न न करने पर ही होती हैं। श्री हेमन्त काला जी ने भी 'आरंभ' में प्रमत्तयोग का सद्भाव स्वीकार किया है। (देखिए, उनके पूर्वोद्धृत वचन)। -अक्टूबर 2009 जिनभाषित 3 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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