Book Title: Jinabhashita 2009 10
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 17
________________ कुतप की, तन्त्र-मन्त्रवादिता की साधना से भर्तृहरि ने । हुए थे। कुधर्म का प्रचार था और जैनधर्म पालनेवाले रससिद्धि प्राप्त कर ली और, उस रस को धातु पर | को उस समय बाह्यधर्मावलम्बी कहा जाता था। छिड़कने से सोना बनाया जाने लगा। यह सिद्धि पाकर | ऐसे समय में अपने अडिग तप त्याग से महामुनीश्वर भर्तृहरि बहुत प्रसन्न हुआ। उसने अपने भाई की तलाश मानतुंगाचार्य ने और आचार्य शुभचन्द्र ने अनेक तपोऋद्धियाँ की। उसे मालूम हुआ कि शुभचन्द्र तो नग्न दिगम्बर | प्राप्त करके जैनत्व की रक्षा की थी। उन्होंने अपने विशिष्ट साधु हैं। वह बहुत कृशकाय हो गये हैं। तुरन्त उनके वैराग्य से कर्मों की कड़ियाँ काट कर अमरत्व प्राप्त पास उस पर्वत पर गया जहाँ आचार्य शुभचन्द्र अडिग | किया था। ऐसे समय में ज्ञानार्णव ग्रन्थ ने रामबाण औषधि तप:साधना कर रहे थे। का काम किया था और आज भी कर रहा है। उस भाई की दीनहीन अकिंचन दशा देख कर वह | समय की अविद्या के निवारण के लिए ही अपने प्राथमिक दुखी हुआ और बोला- "देखो, मैंने तप कर के इतनी | सूत्र में आचार्य ने कहा हैबड़ी सिद्धि प्राप्त कर ली है और तुमने यह नंगी दीक्षा अविद्या प्रसरोद्भूताग्रहनिग्रहकोविदम्। लेकर क्या किया? छोड़ो इस दीक्षा को और चलो मेरे ज्ञानार्णवमिमं वक्ष्ये सतामानन्दमन्दिरम्॥ साथ।" अर्थात् अविद्या के प्रसार से उत्पन्न आग्रह रूप आचार्य शुभचन्द्र अपने रागी भाई की ओर देख | पिशाच के निग्रह करने में सिद्धहस्त तथा सत्पुरुषों के कर कहने लगे- "अरे भर्तहरि, अगर सोने से इतना | लिए आनन्द का मन्दिर रूप ज्ञानार्णव कह रहा हूँ। ही मोह, राग था तो राजमहल ही क्यों छोड़ा? तुझे सोना | आत्मा की शुद्धि की ओर लक्ष्य करके आचार्यश्री चाहिए न? ले, कितना सोना चाहता है- " और इतना | ने ज्ञानार्णव में कहा है- यह आत्मा महामोह से कलंकित कह कर अपने ललाट पर चमकती कुछ पसीने की | और मलिन हो रही है। अत: जिससे इसे शुद्धता मिले बूंदों को पर्वत पर छिड़क दिया तो सारा ही पर्वत स्वर्ण- | वही अपना हित है, वही अपना घर है और वही परमज्योति मय हो गया। कंकर कंकर सोना सोना हो गया- तब है। यथाही से इस पर्वत का नाम स्वर्णगिरि या सोनगिर पड़ अयमात्मा महामोहकलंकी येन शुद्ध्यति। गया। भर्तृहरि की आँखें फटी की फटी रह गईं। वह तदेव स्वहितं धाम तच्च ज्योतिः परं मतम्॥ चरणों में गिर गया। और इस महान् तप की प्रशंसा आचार्यवर ने ज्ञानार्णव में संसार के मोह-मायाजाल, करने लगा। अपने भाई को राग से विरागता की ओर | परिवार और परिजन में फँसे मानव-आत्मा को संबोधित झुकते देखकर आचार्य शुभचन्द्र ने उसे सम्बोधनार्थ | करते हुए कहा हैज्ञानार्णव की रचना की। इसे योगार्णव भी कहते हैं। | पातयन्ति भवावर्ते ये त्वां ते नैव बान्धवः। कहा जाता है कि इसे सुनकर भर्तृहरि ने जिनेश्वरी दीक्षा बन्धुतां ते करिष्यन्ति हितमदिदश्य योगिनः॥ धारण कर ली और महान तप किया। अर्थात्- हे आत्मन्, जो तुझे संसारचक्र में डालते राजा भोज, कालिदास, मानतंगाचार्य आदि सब एक | हैं, वे तेरे बान्धव नहीं हैं। किन्तु जो मुनिगण तेरे हित समयवर्ती हैं। आचार्य शुभचन्द्र का उल्लेख कालिदास | की वांछा करके स्नेह करते हैं, हित का उपेदश देते ने भी किया है। हैं, मोक्ष का मार्ग बताते हैं, वे ही तेरे वास्तव में सच्चे अब हम उस महान ग्रन्थ को लेते हैं. जिसके | परम मित्र हैं। पढ़ने से वैराग्य जागृत होता है, मुनीश्वरों का तप, ध्यान भव-भ्रमणनिर्विण्णा भावशुद्धिं समाश्रिताः। और योग-साधना में बल मिलता है। यह ज्ञानार्णव संति केचिच्च भूपृष्ठे योगिनः पुण्यचेष्टिताः।। विशेषतया मुनीश्वरों को अपने नियमों के प्रति दृढ़ बनाये ज्ञानार्णव में महामुनीश्वर आचार्य शुभचन्द्रजी ने रखने में विशेष उपयोगी है। द्वादशभावना, ध्यान की उपयोगिता, महाव्रतों का परिपालन, यह तो सत्य ही है कि आचार्य शभचन्द्र के समय | रत्नत्रय की प्राप्ति, विभावभावों से निर्वृत्ति आदि का विस्तार में अविद्या का घोर प्रचार-प्रसार था। जटाजूटधारी साधु | से वर्णन किया है। भोले-भाले लोगों को बहका कर साधु बनाने में लगे | सबसे महत्त्वपूर्ण बात आचार्यश्री ने कही है कि - अक्टूबर 2009 जिनभाषित 15 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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