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जिज्ञासा-समाधान.
पं० रतनलाल बैनाड़ा प्रश्नकर्ता- सौ० कमलश्री, अजमेर। । को प्राप्त होते हैं अर्थात् तीर्थंकर होकर गर्भ जन्मादि
जिज्ञासा- क्या विग्रहगति में पुद्गलशरीर न होने | कल्याणकों से युक्त परम सुख को प्राप्त होते हैं और द्रव्य से पदगल विपाकी कर्मों का उदय भी नहीं होता? | मनि मनष्य. तिर्यंच तथा कदेव योनि में दःखों को प्राप्त
. समाधान- इसके समाधान में सर्वार्थसिद्धि पृष्ठ | होते हैं। ३०७ पर दिए गए विशेषार्थ में इसप्रकार कहा गया है- ४. श्री सागारधर्मामत के आठवें अध्याय की गाथा
'जब तक जीव को औदारिक आदि नोकर्मवर्गणा | ५३ में इसप्रकार कहा हैका निमित्त नहीं मिलता है, तब तक पुद्गल विपाकी कर्म क्वापि चेत्पुद्गले सक्तो नियेथास्तद् ध्रुवं चरेः। अपना कार्य करने में समर्थ नहीं होते हैं। इनका विपाक तं कृमीभूय सुस्वादुचिर्भटासक्तभिक्षुवत्॥ ५३॥ पुद्गलों का निमित्त पाकर होता है, इसलिए इन्हें पुद्गल अर्थ- हे क्षपकराज! यदि तू किसी भी भोजनोपयोगी विपाकी कहते हैं। जैसे कोई एक जीव दो मोड़ा लेकर | पदार्थ में आसक्ति रखकर मरेगा, तो निश्चय से स्वादिष्ट यदि जन्म लेता है, तो उसके प्रथम और द्वितीय मोड़े के | खरबूजे में आसक्ति रखकर मरनेवाले संन्यासोन्मुख भिक्षुक समय शरीर आदि पुद्गल विपाकी प्रकृतियों का उदय नहीं | के समान, उसी पदार्थ में कीट होकर उत्पन्न होगा। होता है। तीसरे समय में, जब वह नवीन शरीर को ग्रहण भावार्थ- हेमसेन नामक मुनिराज का आयु का करता है, तभी उसके इन प्रकृतियों का उदय होता है। अन्तिम समय चल रहा था। उस दिन उस चैत्यालय में
जिज्ञासा- यदि कोई द्रव्य से निर्ग्रन्थ हो तथा भावों भगवान की प्रतिमा के सामने एक पका हुआ खरबूजे का में कुछ गिरावट आ जाये, तो क्या वह नीच गतियों में जा | फल चढ़ाया हुआ रखा था। खरबूजा इतना पका हुआ था सकता है?
कि उसकी सुगन्ध मुनिराज के पास तक पहुँची और उनका ___ समाधान- शास्त्रों में ऐसे बहुत से प्रमाण मिलते | मन उस फल की ओर ललचा गया। इस फलप्राप्ति की हैं, जिनके अनुसार भावलिंग रहित साधुओं की नीच गति | आर्त चिन्ता में ही विचारे मर गए और मरकर तत्क्षण उस भी कदाचित संभव है। कुछ प्रमाण इस प्रकार है- | फल के अन्दर कीडे की पर्याय में उत्पन्न हो गए।
१. श्री भावपाहुड गाथा ७४ में इसप्रकार कहा है- प्रश्नकर्ता- पं. जिनेन्द्र शास्त्री, ललितपुर। भावो वि दिव्वसिवसुक्खभायणो भाववज्जिओसवणो। जिज्ञासा- क्या अन्तरात्मा की तरह बहिरात्मा के कम्ममलमलिणचित्तो तिरियालयभायणो पावो॥७४॥ | भेद होते हैं या नहीं?
अर्थ- भाव तथा द्रव्य दोनों लिङ्गों का धारक मुनि , समाधान- कार्तिकेयानुप्रेक्षा में बहिरात्मा का स्वरूप स्वर्ग और और मोक्ष सम्बन्धी सुखों का भाजन होता है इसप्रकार लिखा हैतथा भावलिङ्ग से रहित पापी मुनि कर्मरूपी मल से मलिन मिच्छत्त परिणदप्पा तिव्व-कसाएणर चित्त होता हुआ तिर्यंच गति का पात्र होता है ।
जीवं देहं एक्कं मण्णंतो होदि बहिरप्पा ॥१९३॥ २. श्री सूत्रपाहुड़ ग्रंथ में इसप्रकार कहा है- | अर्थ- जो जीव मिथ्यात्व कर्म के उदयरूप परिणत - जहजायरूवसरिसो तिलतुसमित्तं ण गिहदि हत्थेसु। हो, तीव्र कषाय से अच्छी तरह अविष्ट हो और जीव तथा
जड़ लेड अप्पबद्यं तत्तो पुण जाइ णिग्गोदं॥१८॥ देह को एक मानता हो, वह बहिरात्मा है।
अर्थ- नग्न-मुद्रा के धारक मुनि तिलतुष मात्र भी | इसकी टीका में आ० शुभचन्द्र महाराज ने इसप्रकार परिग्रह अपने हाथों में ग्रहण नहीं करते। यदि थोड़ा बहुत | कहा है- 'उत्कृष्टा बहिरात्मनो गुणस्थानादिमे स्थिताः, ग्रहण करते हैं, तो निगोद जाते हैं।
द्वितीये मध्यमाः, मिश्रे गुणस्थाने जघन्यका इति।' अर्थ३. श्री भावपाहुड़ ग्रंथ में इसप्रकार कहा है- प्रथम गुणस्थानवर्ती बहिरात्मा जीव उत्कृष्ट बहिरात्मा है, पावंति भावसवणा कल्लाणपरंपराइ सोक्खाई। | दसरे सासादन गणस्थानवर्ती जीव मध्यम बहिरात्मा और दुक्खाई दव्वसवणा णरतिरिकुदेवजोणीए॥९८॥ | तीसरे मिश्रगुणस्थानवर्ती जीव जघन्य बहिरात्मा है। इस अर्थ- भाव मुनि कल्याणों की परम्परा से युक्त सुखों | प्रकार बहिरात्मा के ३ भेद कहे गये हैं।
हो।
-अक्टूबर 2009 जिनभाषित 23
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