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प्रत्याख्यान- पिछली त्रुटियों पर पश्चात्ताप करते । सामाथिक के काल में शीत, उष्ण, वर्षा तथा डाँस, हुए आगे के लिए उन त्रुटियों से दूर रहने का निश्चय। मच्छर आदि की बाधा होती है, तो उसे समताभाव से
सामायिक- शत्र. मित्र सभी जीवों पर समताभाव | सहन करना चाहिये। परिणामों की स्थिरता के लिए रखना। इष्ट-अनिष्ट का प्रसंग आने पर यह विचार करना | सामायिक पाठ, तथा बारह भावना आदि का पाठ भी संसार में सुख-दुख आदि जो भी प्राप्त होता है, वह | करना चाहिये। स्वयं के द्वारा अर्जित कर्मों का फल है। अन्य लोग सामायिक पूर्ण होने पर जिस दिशा में मुख है तो मात्र बाह्य निमित्त हैं, मल निमित्त मेरा कर्मोदय ही उसी दिशा में नौ बार णमोकार मन्त्र पढ़कर तथा भूमि है, अत: सब परिस्थितियों में समताभाव रखना आवश्यक स्पर्श-पूर्वक नमस्कार करना चाहिये। शारीरिक अस्वस्थता है। यही सामायिक कर्म कहलाता है।
या वृद्धावस्थाजन्य अशक्ति के होने पर प्रारम्भिक और . स्तुति- वृषभादि तीर्थंकरों की अलग-अलग अथवा | अन्तिम कार्योत्सर्ग की क्रियायें अपवादरूप से बैठे-बैठे समुदायरूप से स्तुति करना स्तुति कर्म कहलाता है। ये भी की जा सकती हैं। सामायिक के समय मन, वचन, वृषभादि तीर्थंकर ही धर्म-मार्ग के प्रवर्तक हैं, उनके प्रति | काय की चंचलता को रोकना चाहिये तथा बड़े उत्साह भक्ति का भाव प्रकट करना आवश्यक है।
से सब विधि का पालन करते हुए अ वन्दना- चौबीस तीर्थंकरों में से किसी एक | चाहिये। तीर्थंकर की स्तुति करना वन्दना कर्म है।
बारह आवर्त, चार शिरोनति और दो निषद्याओं कायोत्सर्ग- निश्चित समय तक शरीर से ममत्व | के विषय में ऐसा भी उल्लेख मिलता है: 'जिस प्रकार छोड़कर शरीर की अशुचिता और अनित्यता का विचार - मुनियों के सामायिक और स्तव नामक कृतिकर्म साथकरते हुए णमोकार मन्त्र अथवा किसी अन्य मन्त्र का | साथ होते हैं, उसी प्रकार श्रावक के भी दोनों कर्म साथजाप करना कायोत्सर्ग कहलाता है।
साथ होते हैं। सामायिक कृति कर्म में सामायिक दण्डक जाप करने के बाद आज्ञविचय, अपायविचय, | और स्तवकृति कर्म में थोस्सामि दण्डक पढ़ा जाता है। विपाकविचय तथा संस्थानविचय, इन चार प्रकार के बारह आवर्तों और चार प्रणामों की संख्या का विवरण धर्म्यध्यानों का विचार करना चाहिये। गृहस्थ के प्रारम्भ देते हुए अन्यत्र यह भी लिखा है कि सामायिक दण्डक के तीन ध्यान होते हैं, संस्थानविचय नहीं होता, परन्त के प्रारम्भ और अन्त में तीन-तीन आवर्त करना हुआ मुनिराजों के चारों धर्म्यध्यान होते हैं। सूक्ष्म, कालान्तरित | एक प्रणाम करता है। इस प्रकार सामायिक दण्डक के तथा दूरवर्ती पदार्थों का चिन्तन आज्ञाविचय धर्म्यध्यान | ६ आवर्त और २ प्रणाम होते हैं। यही विधि स्तवदण्डक के माध्यम से होता है। चर्तुगति के दुःखों, तथा उनसे | के प्रारम्भ और अन्त में करता है, इसलिए इसमें भी
के उपायों का चिन्तन, अपायविचय धर्म्यध्यान में | ६ आवर्त और २ प्रणाम होते हैं। दोनों को मिलाकर होता है। किस कर्म के उदय में जीव का कैसा भाव | १२ आवर्त और ४ प्रणाम होते हैं। सामायिक कृतिकर्म होता है, किस कर्म का बन्ध, उदय तथा सत्त्व किस के प्रारम्भ में बैठकर नमस्कार किया जाता है, इसलिए गुणस्थान तक रहता है, ऐसा चिन्तन करना विपाकविचय | दोनों कृतिकर्मों की दो निषद्याएँ (कटिभाग को सम रख धर्म्यध्यान है। और लोक, सुमेरुपर्वत, नन्दीश्वरद्वीप तथा | कर पद्मासन आदि आसनों से बैठना) होती हैं। अकृत्रिम चैत्यालयों आदि के संस्थान, आकृति आदि का
साहित्याचार्य डॉ० पन्नालाल जैन विचार करना संस्थानविचय धर्म्यध्यान है।
अभिनन्दन ग्रन्थ (५/२२-५/२३)
से साभार साहिब तुम जनि बीसरो, लाख लोग मिलि जांहि। हमसे तुमको बहुत हैं, तुम सम हमको नांहि॥ तुम्हें बिसारै क्या बनै, किसके सरनै जाय। सिव विरंचि मुनि नारदा, हिरदे नांहि समाय॥
- कबीर
--अक्टबर 2009 जिनभाषित 22
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