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मूकमाटी मीमांसा : दिव्य प्रेम के काव्य की मीमांसा
डॉ० तालकेश्वर सिंह
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मूकमाटी-मीमांसा (तीन खण्ड) सम्पादक डॉ. प्रभाकर माचवे एवं आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी (आचार्य श्री विद्यासागर जी रचित 'मूकमाटी' महाकाव्य पर २८३ समालोचकों के आलेखों का संग्रह) प्रत्येक खण्ड में ८०+५५७ पृष्ठ, प्रत्येक खण्ड- मूल्य : ४५० रुपये, तीनों खण्ड- मूल्य : ११०० रुपये; प्रकाशक: भारतीय ज्ञानपीठ ।
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आचार्य श्री विद्यासागर जी का 'मूकमाटी' महाकाव्य । अधिग्रहण है । माँ पुत्रों के लिए सोचती है । ऐकान्तिक एक वरेण्य कृति है। अध्यात्म और कला के समन्वित त्याग करती है। कत्रि समाज के लिए सोचता है। लिखता धरातल से माटी मूक होकर भी बहुत कुछ कहती है है । अपनी काव्य-सृष्टि से जाति में, समाज में अभिनव मौन प्रखर हो गया है। भाषा का परिधान पा गया है। शक्ति संचार करता है । कवि एक साथ द्रष्टा और स्रष्टा ' शब्द से शब्दातीत तक जाने की यात्रा' को वाणी दे का समाहार है। आचार्य विद्यासागर जी कहते हैं कि रहे हैं- डॉ. प्रभाकर माचवे (प्रेरक) युगानुरूप कवि चित्र बनाता है। प्राण का संचार करता प्रतिष्ठा करता है।
'युग हमेशा वर्तमान होता है' (आचार्य विद्यासागर ) भूत को हम पकड़ नहीं सकते हैं। भविष्य पर अँगुली नहीं रख सकते हैं। 'जो वर्तमान है, वही वर्धमान है हमारा' (आचार्य विद्यासागर, 'मूकमाटी-मीमांसा' तो xiv) । किन्तु अतीत की अतीतता यदि जीवित है, वर्तमान की व्याख्या में वह सहायक है । यही इतिहास - बोध है। मृत अतीत का कोई अर्थ नहीं होता है । काल की सरिताधारा महत्वपूर्ण है। कालजयी कृतिकार काल के इस वैशिष्ट्य को पकड़ते हैं। 'मूकमाटी' की कालधारणा कुछ इसी प्रकार की है। इतिहास-बोध के समाहार से कोई रचना कालजयी बनती है।
आचार्य विद्यासागर जी एक ही संग कवि और संत दोनों हैं। काव्य प्रेरणा सर्वसामान्य नहीं होती है। सन्त विरल होते हैं । किन्तु जहाँ कवि और सन्त दोनों संग हो जाते हैं, वह स्थिति विशिष्ट, अतिविशिष्ट होती । परम विशिष्ट होती है स्व और पर के भेद से कवि और सन्त ऊपर होते हैं।
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कविता सर्वाश्रित होती है। स्वायत्त भी कह लीजिए। किन्तु स्व में 'पर' और 'स्व' के अंगीकार के अभाव में कविता दिकूं और काल से ऊपर उठ नहीं सकती है। जहाँ भाषा का स्वीकार है, वहाँ सम्प्रेषण का अस्वीकार नहीं चल सकता है। कविता यदि भाषा में अभिव्यक्ति है, तो उसके अधिग्रहण के लिए एक अदद पाठक भी चाहिए गोस्वामी तुलसीदास का 'उपजहिं अनत अनत छवि लह हीं' (मानस 1.11 ) वैश्विक स्तर
आलोच्य 'मूकमाटी' का विषय और प्रेरक दोनों महासत्ता हैं आचार्य की दृष्टि में अध्यात्म की नींव महासत्ता है । महासत्ता अणु और महत् दोनों है। उसकी सर्वव्याप्ति असन्दिग्ध है ।
घट में मिट्टी के साथ आकाश भी है। आचार्य विद्यासागर जी की दृष्टि में अणु और स्थूल का स्वरूप स्पष्ट है। घट तो स्थूल है, पर उसका घटत्व अणु है, सूक्ष्म है।
निरक्षर और साक्षार का खेल मानसिक व्यायाम मात्र है। अक्षर तो शाश्वत है। ' अक्षरं' न क्षरम् है । इस अक्षर को जो जानता है, वही परम तत्त्व को जानता है स्वयं पवित्र होता है। पितरों को पवित्र करता है साक्षर और राक्षस अनुलोम-विलोम की शब्द रचना भर
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पूर्ण तक पहुँचने का क्रम 'मूकमाटी' में निर्दिष्ट है । आध्यात्मिक चिन्तन का सहजोद्रेक है। एक विलक्षण नैरन्तर्य है। निरन्तरता कहीं भी टूटती नहीं है। प्रसंगोद् भावना के अनुरूप शीर्षकों का चयन किया गया है।
मिट्टी अनगढ़ है । सुन्दर मूर्ति की सारी सम्भावनाएँ अनगढ़ मिट्टी में विद्यमान हैं। कुम्भ और कुम्भकार अभिन्न निमित्तोपादान कारण के रूप में स्वीकृत हैं ।
मनुष्य के जीवन में इच्छा, ज्ञान और क्रिया का सामरस्य अनिवार्य है। 'समरसो लोलिभाव: ' में ही जीवन का सम प्रतिष्ठित है । परन्तु आचार्यश्री जी कहते हैं कि माँ की 'अपनी कोई इच्छा नहीं होती' ('मूकमाटी मीमांसा xiii) माखनलाल चतुर्वेदी में माँ का ही
26 अक्टूबर 2009 जिनभाषित
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