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दशधर्म
(वसन्त तिलका छन्द)
- मुनि श्री योगसागर जी
है रत्न उत्तम क्षमा महिमा निराली। पावित्र्य संयम बिना शिव को न पाये। ये स्वर्ग मोक्ष सुख वैभव को दिलाती॥ अध्यात्म का अमृतपान यही कराये॥ ये क्रोध को स्वपरनाशकता रही है। संसारतारक जहाज यही रहा है। ये गंगनीर सम शीतलता रही है। सौभाग्य का विषय है नर साधता है।
अम्बोज मार्दव खिला कर शोभता है। नोकर्म को विविध पावक तो जलाये। दुर्गन्ध मानमद आदि निवारता है॥ दुष्टाष्ट कर्म इन को न जला सके ये॥ ये तो सदा विनय सौरभ को बहाये। है एक मात्र तप ही विधि को जलाये। सद् भावना सलिल में तम को दिखाये॥ यों वीतराग जगदीश्वर देशनाये॥
कौटिल्यता गरल जीवन में न आये। जो पंच पाप तज के वन को चले हैं। पीयूष आर्जवमयी निज को बनाये॥ स्वर्गीय वैभव जिने तृण सा लगे है॥ वात्सल्य प्रेम क्रुजुता झरणा बहाये। वैराग्य का उदय भानु जगा दिया है। हर्षीत जीवन सदा हम को दिखाये॥ जो मोह नींद अब तो न सता रही है।
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यों लोभ ही अशुचि जीवन को बनाया। बाहर भीतर परिग्रह अंश ना है। अज्ञान के तिमिर में सब को भ्रमाया॥ जो पारदर्शक दिगम्बर साधुता है। सन्तोष ही अशुचि पाप निवारता है। जो निर्विकल्प परमोत्तम ध्यान द्वारा। आत्मीय वैभव तुम्हे सहसा दिलाये॥ जो पाप के दहन से निज को निहारा॥
१० उद्योत सत्य उर के तम को मिटाये। आनन्द ब्रह्म रस में रमते सदा हैं। वर्षा करे अभय की भय को हटाये॥ दावाग्नि सा मदन-ताप बुझा दिया है। है सत्य का बल अजेय अनन्तता है। संवेदना न तन की करते कहाँ है। मोहारि भी चरण शीश झुका दिया है॥ अत्यंत भिन्न तन को लखते सदा हैं।
प्रस्तुति - प्रो० रतनचन्द्र जैन
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