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. हँसी आती है इस तर्क को सुनकर कि जैनशासन | और भी अनेक आगमविरुद्ध मान्याओं को प्रश्रय मिला। देवी-देवता अलग होते हैं और अजैन अलग। जैन | साथ ही दिगम्बर मुनियों की चर्या भी दूषित होती गई। पद्मावती अलग होती हैं और अजैन अलग। वस्तुतः इसी खेदजनक स्थिति को देखकर ही आचार्यों ने खेद देवी-देवता तो वे ही हैं, जब जैनियों ने अपनाया तो प्रकट करते हुए लिखा है 'पंडितै भ्रष्टचारित्रैर्बठरैश्चतपोधनैः। उन्हें जैन बना दिया और अजैनों ने उन्हें अजैन बना | शासनं जिनचन्द्रस्य निर्मलं मलिनीकृतं।' दिया। जैनआगम में सर्वत्र कुदेव की परिभाषा एक ही | पं०पू० आचार्य शांतिसागर जी ने एक विद्वान द्वारा कही है- जो राग-द्वेष सहित देव हैं वे कुदेव हैं। 'राग- | पद्मावती को सिद्ध करने की बात पर सरल शब्दों में द्वेष-मलीमसा देवता यदुपासीत देवतामूढ उच्यते'। सभी उसका निषेध किया। उन्होंने यह तर्क दिया कि पद्यमावती श्रावकाचार ग्रंथों में वीतरागी देव का सुदेव और रागी- को सिद्ध करने के लिए उसे नमस्कार करना पड़ता द्वेषी देव को कुदेव लिखा है। यह सूर्य की तरह स्पष्ट | है, फिर मुनि या श्रावक अवती देवी को नमस्कार कैसे
| कर सकते हैं? श्रावक भी देशव्रती होने से अव्रती पद्मावती 'रागसहित जग में रुल्यो मिले सरागी देव। वीतराग को नमस्कार कैसे कर सकता है? बल्कि पद्मावती देवी भेट्यों अवै मेटे राग कुदेव।'
अथवा शासन देवताओं को ही श्रावक को नमस्कार या लेखक ने अपने लेख में अनेक स्थानों पर 'माँ | विनय करना चाहिए। पद्मा' शब्द का प्रयोग किया है। यह भवनत्रिक की देवी | पक्षाग्रह के कारण हम अपने आगमज्ञान का मनुष्यों की माँ कैसे बन गई? वैसे हम लोग आर्यिका | दुरुपयोग.मिथ्यात्व के समर्थन में करके दर्शन मोहनीय माताजी को 'माताजी' शब्द से सम्बोधित करते हैं, क्योंकि | कर्म के बंध को आमंत्रित कर रहे होते हैं। आगम में वे उत्कृष्ट देशव्रतों का पालन करती हैं। पदमावती देवी | पूजा आराधना के पात्र नव देवता बताए हैं। शासनको, जो तत्त्वतः हमसे उच्च पद पर प्रतिष्ठित नहीं हैं, देवता आदि नव देवताओं में नहीं होने से पूजा के पात्र हम कैसे उनको 'माँ' शब्द से सम्बोधित करेंगे? | नहीं हैं। सम्यग्दृष्टि शासन-देवता जिनेन्द्रभक्त होने के ... मूल बात से ध्यान हटाने के लिए इधर-उधर | कारण जिनेन्द्र के भक्तों की तो वात्सल्यभाववश सहायता के विषय उपस्थित कर उलझाने का प्रयास एक दुनीति | करते हैं, किंतु स्वयं की पूजा करनेवालों को तो मिथ्यादृष्टि है। मूल बात यह है कि सर्वज्ञ एवं वीतरागी ही सच्चे | समझकर उनकी उपेक्षा ही करेंगे। दिल्ली के लाल मंदिर देव हैं, दूसरे कोई नहीं। रागी-द्वेषी मिथ्या देव हैं, जो | में मिथात्व का ऐसा प्रभाव देखने में आता है कि बहुत परमार्थभूत नहीं है। रागी-द्वेषी देव नहीं, कुदेव होते हैं। से दर्शनार्थी जिनेन्द्र भगवान की वेदी पर बहुत थोड़ा 'ते हैं कुदेव तिनकी जो सेव शठकरत न तिन भव | समय खर्च करते हैं और बहुत अधिक समय पद्मावती भ्रमण छेव।' इस दिगम्बर जैनधर्म के प्राणभूत सिद्धांत | देवी की वेदी पर स्तुति करने में बिताते हैं। पद्मावती का अपलाप करने के लिए किए जा रहे प्रयास कदाचित् | देवी की एक स्तुति में भक्त लोग गाते हैं 'माता तृ किंचित् सफल हो सकते हैं, किंतु सिद्धांत तो अमर दया करके कर्मों से छुड़ा देना, इतनी सी विनय तुमसे रहता है। दिगम्बर जैनों में से ही निकलकर कुछ साधु | भव पार लगा देना।' विचार किया जाना चाहिए कि
और विद्वानों ने श्वेताम्बर धर्म की स्थापना की और वह किस प्रकार पद्मावतीदेवी, जो हम सबसे कदाचित् अधिक तर्क और साहित्यिक प्रमाणों से समृद्ध होकर फल फूल | ही कर्मों से जकड़ी हुई हैं, फिर भी हमें कैसे भवरहा है। नए मतों की स्थापना साधुओं और विद्वानों के | पार लगा देंगी, कैसे कर्मों से छुड़ा देंगी? द्वारा ही होती है। यह संभव है कि शासन देवी-देवताओं | सभी प्रकाशित श्रावकाचार के ग्रंथों में वीतरागी की पजा-आराधना और नवग्रहपूजा और नवरात्रा जैसे | देव एवं वीतरागी गरु की ही आराधना करने की एक पर्यों के प्रचलन को श्वेताम्बरों से भी आगे बढ़कर इस | ही बात कही गई है। यह सिद्धांत दिगम्बरजैनधर्म का पावन दिगम्बर जैनधर्म को वैष्णवपंथ का रूप प्रदान | प्राण है। कर देवें। श्वेताम्बरों के पश्चात् वीतराग दिगम्बर जैनधर्म
मदनगंज-किशनगढ में भट्टारक-पंथ, तारणपंथ आदि पंथों की उत्पत्ति हुई ।
अजमेर (राज.)
-अक्टूबर 2009 जिनभाषित 20
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