________________
शास्त्र-गुरु के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन एवं कुदेव-कु गुरु- | देवता रागी-द्वेषी तो होते ही हैं। द्रव्यसंग्रह के टीकाकार कुधर्म की वंदना करनेवाले को मिथ्यादृष्टि लिखा है- | ने राग-द्वेषयुक्त आर्त्तरौद्र परिणामों के धारक क्षेत्रपाल
हिंसारहिए धम्मे अट्ठारहदोषविवज्जिए देवे। । चंडिका आदि मिथ्या देवों की आराधना करना देवमूढ़ता णिग्गंथे पावणये सद्दहणं होई सम्मत्तं ॥ ९०॥ । बताया है। यहाँ 'मिथ्यादेव' देव के एक भेद के रूप कुच्छियदेवधर्म कुच्छियलिंगं च बंदए जो दु। में ग्रहण किया है। सच्चेदेव और मिथ्यादेव ये दो भेद लज्जाभयगारवदो मिच्छादिट्ठी हवे सो दु॥ ९२॥ देव के हैं। सर्वज्ञ एवं वीतरागी सच्चे देव हैं और रागी
यहाँ कहा गया है कि जैन देवी-देवता सम्यग्दृष्टि | द्वेषी मिथ्या देव हैं। सम्यग्दृष्टि देव भी रागीद्वेषी होते होते हैं, अतः वे पूज्य माने गए हैं और अजैन देवी- हैं। अतः रागी-द्वेषी, आर्तरौद्र ध्यानवाले उन जैनशासन देवता मिथ्यादृष्टि होने से पूज्य नहीं होते। इस बारे में देवतओं की भी पूजा आराधना करने का सर्वथा निषेध पहली बात तो यह है कि आगम में रागी-द्वेषी देवों किया है, क्योंकि वे मिथ्या देव हैं। को मिथ्यादेव माना है, इसलिए वे पूजा आराधना के जैन सिद्धांत एवं तत्त्वबोध के अभाव में अपने पात्र नहीं हैं, चाहे वे सम्यग्दृष्टि हों चाहे मिथ्यादृष्टि। मिथ्याज्ञान के अंहकार से ग्रसित व्यक्ति ही दूसरों के
यदि वे शासनदेवी-देवता सम्यदृष्टि हों, तो वे | ज्ञान पर प्रश्न चिन्ह लगाने का दुस्साहस करता है। अज्ञानी सम्यदृष्टि अथवा व्रती श्रावकों से पूजा-उपासना कराना को ज्ञानी की बात नहीं सुहाती और दुराचारी को सदाचारी कभी नहीं चाहेंगे। एक सम्यग्दृष्टि दूसरे सम्यग्दृष्टि के | व्यक्ति बुरा लगता है। प्रति सहज ही सम्यग्दर्शन के अस्तित्व के कारण आदरणीय पं० कैलाशचन्द्र जी के द्वारा यह लिखा वात्सल्यभाव रखता है और उसकी यथाशक्ति सहायता | गया है कि यक्ष-संस्कृति तमिल देश में दूसरी शताब्दी करता है। साथ ही वह जैनधर्म की प्रभावना करने की | में संभव है, इसमें आश्चर्य क्या है? यक्षी संस्कृति के भावना रखता है। ऐसा वह अपना कर्त्तव्य मानकर | दसरी शताब्दी में होने से क्या यक्षी-पूजा विधेय हो गई? उत्साहपूर्वक करता है। इसके लिए वह दूसरों से पूजा | यह तथ्य है कि मिथ्यादर्शन भी उतना ही प्राचीन है प्रार्थना की अपेक्षा नहीं करता है। श्रावकों में भी कोई | जितना सम्यग्दर्शन है। श्वेताम्बरसम्प्रदाय यक्षी संस्कृति समर्थ-सम्पन्न होते हैं, वे सम्यग्दर्शन के कारण सहज | से भी अधिक प्राचीन हैं। यदि जैन मिथ्यादृष्टियों की में वात्सल्य-भावना से प्रेरित हो कर्त्तव्यभावना से रुचिपूर्वक
संख्या सम्यग्दृष्टियों से संख्यातगुणी है, तो क्या केवल अन्य श्रावक बंधुओं की सहायता सेवा करते हैं और इसलिए मिथ्यादर्शन व मिथ्यामान्यताओं को समीचीन मान धर्मप्रभावना करते हैं। इसके लिए उन सेवाभावी समर्थ | लिया जाना चाहिए? श्रावकों की प्रशंसा-अनुमोदना तो अवश्य की जाती है, यद्यपि किन्हीं आचार्य या विद्वान-विशेष की मान्यता किंतु उनकी पूजा-आराधना कभी नहीं की जाती। इसी को समीचीनता की कसौटी नहीं माना जा सकता, तथापि प्रकार उन देवी-देवताओं की उपासना का किया जाना | आपका यह शाब्दिक क्लिष्ट व्यायाम व्यर्थ है। पू. आर्यिका न उचित ही है, न तर्कसम्मत। यदि देवों की उपासना | स्यादवादमति जी का किशनगढ़ में कहा गया एक वाक्य ही की जानी है, तो इन भवनत्रिक के स्थान पर उत्कृष्ट | मात्र आपके सारे शाब्दिक महल को धराशायी करने के सौधर्म इन्द्र, लौकांतिक देव, सर्वार्थसिद्धि के देव जो लिए पर्याप्त है। सम्यदृष्टि होने के साथ-साथ आगमज्ञाता और एक इतने सारे शब्दजाल से क्या आप यह सिद्ध कर भवावतारी होते हैं, फिर उनकी पूजा आराधना का विधान | पाये हैं कि जयोदय महाकाव्य पं० भूरामल जी ने नहीं क्यों नहीं किया गया है।
लिखा था, बल्कि पू. आ. ज्ञानसागर जी ने लिखा था। यदि वे शासन देवी-देवता कदाचित् मिथ्यादृष्टि | पं० भुरामल जी में एवं आचार्य ज्ञानसागर जी में वास्तव हों, तो उनकी पूजा आराधना करने का बिल्कुल भी | में ही गणात्मक अंतर था। श्रावक अवस्था में उनके प्रश्न उपस्थित नहीं होता। इस प्रकार उन देवी-देवताओं | सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चरित्र जघन्य अवस्था में थे, जो मुनि के सम्यदृष्टि होने अथवा मिथ्यादृष्टि होने, दोनों ही | । आचार्य होने पर मध्यम या उत्कृष्ट अवस्था को प्राप्त अवस्थाओं में उनकी पूजा आराधना करने का कोई औचित्य | हो गए थे। इतनी छोटी सी बात नहीं समझकर भी अपने सिद्ध नहीं होता है। दोनों ही अवस्थाओं में वे देवी- | ज्ञान का दंभ करना आश्चर्यजनक है।
अक्टूबर 2009 जिनभाषित 19
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org