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दिग्विजय - आलेख पर टिप्पणी
'तीर्थंकर वाणी' (मासिक) अहमदाबाद में प्रकाशित लेख 'दिग्विजय' से क्षुभित होकर पत्रिका के सम्पादक श्री डॉ. शेखरचन्द्र जी को लिखे धमकी भरे पत्र में कहा गया कि आपने झूठ को पंख दे प्रचारित करने का जघन्यतम कृत्य किया है। यह भी लिखा कि पत्र को वकील का नोटिस समझा जाय और यदि पत्र को गंभीरता से नहीं लिया गया तो अगला कदम वकील का नोटिस और उसका अगला कदम न्यायालय । न्यायालय का भय दिखाकर जिनवाणी की चर्चा करने से रोकनेवाले स्वयं जिनवाणी के प्राणभूत अनेकांत से कितने दूर हैं? यह विचारणीय है कि एक सद्धर्मप्रभावना के पावन उद्देश्य से आगमाधार से लिखे गए लेख को छापना जघन्यतम कृत्य है अथवा लेख की गुणावगुण के आधार पर समीक्षा के बजाय संपादक के प्रति धमकी भरे कठोर शब्दों का प्रयोग ?
यह इस कालिकाल का ही प्रभाव है कि दिगम्बर जैनधर्म की मूल तत्त्वदेशना प्रचारित करने को अपराध बताते हुए वकील का नोटिस दिया जा रहा है। किंतु संपादक को क्यों धमकी दी जा रही है, उन्होंने तो मेरा हस्ताक्षरित लेख प्रकाशित किया है, मुझको दीजिए नोटिस और हाँ मैंने भी तो भगवान् महावीर की शासन परम्परा के महान् प्रभावक आचार्य कुंदकुंद, समंतभद्र आदि के उपदेशों को प्रचारित किया है, अतः वह नोटिस उन महान् आचार्यों को दिया गया समझा जाना चाहिए। वह मिथ्यात्व की दिग्विजय की ओर किया गया ही एक प्रयास है।
उक्त लेख के प्रत्युत्तर में एक साक्षात्कार 'साजिश २० पंथी आचार्यों के खिलाफ १३ पंथी विद्वानों की छपाकर घर-घर भेजा गया है। हमारे भीतर की गंदगी के कारण हमें पारस्परिक वात्सल्यपूर्ण चर्चा में भी साजिश की गंध आती है। धर्मचर्चा के क्षेत्र में साजिश की कल्पना कैसी? क्या किसी को तत्त्व निर्णय के पावन प्रयोजन से अपने विचार प्रकट नहीं करना चाहिए और क्या किसी को उसी पवित्र भावना से दूसरे के विचारों को शांतिपूर्वक सुनने की क्षमता नहीं रखनी चाहिए? क्या धार्मिक क्षेत्र में अपने ज्ञान के दंभभाव से ग्रसित हो अपने से विरोधी विचारों को शांति एवं धैर्यपूर्वक सुनने
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मूलचन्द लुहाड़िया
एवं शालीन चर्चा करने के स्थान पर व्यंग्यपूर्ण निन्दात्मक शब्दों के प्रयोग द्वारा सामनेवाले पर आरोपों के शस्त्र चलाना उचित है?
प्रत्येक वाक्य में स्वयं के ज्ञान का मिथ्या, अहंकार झलकाना ही निरी अज्ञानता है। जैनदर्शन की नयव्यवस्था का ज्ञान कठिन है। अमृतचन्द्र के शब्दों में अत्यंतनिशितधारं दुरासदं जिनवरस्य नयचक्रम्।' यहाँ वहाँ असम्बद्ध, अप्रासंगिक शब्दों का प्रयोग कर नयज्ञान होने का मिथ्या दंभ प्रदर्शित कर पाठकों को भ्रमित करने के पहले हम स्वयं अपने को ही धोखा दे रहे होते हैं।
पू. स्याद्वादमति माताजी द्वारा किशनगढ़ में सार्वजनिक मंच से घोषणा की बात को सफेद ही नहीं, सफेदतम झूठ बताते हुए थोड़ी भी लज्जा का अनुभव नहीं किया गया। सच-झूठ की परीक्षा के लिए सीधी सी बात यह थी कि माताजी से पूछ लेते कि उन्होंने वैसा कहा था या नहीं ? किंतु इस दिशा में सफलता नहीं मिलने से इस बारे में अप्रासंगिक, असम्बद्ध इधरउधर की बातें कर बार-बार उस घोषणा को निराधार ही झूठ का फतवा देना अपने सफेद झूठ को छिपाने का असफल प्रयास मात्र है। माताजी द्वारा झूठ कहलाने में असफल होने पर अत्यंत कुशलता से प्रसंग को मोड़ देने का प्रयास करते हुए अनोखी बात लिखी कि 'यदि कभी आचार्य विमलसागर जी महाराज ने रागीद्वेषी देवीदेवतादि शब्द का प्रयोग कर उनकी अर्चना, उपासना का निषेध किया भी है, तो वहाँ सर्वत्र विवाद नहीं करते हुए अन्य मत के भैरव - पद्मावती आदि शासनरक्षक देवता ऐसा अर्थ कदापि नहीं लेना चाहिए।' ऐसे निराधार तर्काभासों का सहारा लेकर येन केन प्रकारेण अपनी मिथ्या बात को पुष्ट करने की यह नई चेष्टा अन्वेषित की गई है। रागीद्वेषी देवी-देवताओं को पूजने का निषेध करने की बात सम्पूर्ण जैनागम में स्थान-स्थान पर सबल शब्दों में उल्लिखित है और कहीं भी किसी भी ग्रंथ में कभी भी उन रागीद्वेषी देवी-देवताओं के जैन और अजैन दो भेद नहीं किए गए हैं। धन्य हैं आपके मस्तिष्क की इस अनोखी उपज को जैनसाहित्य के प्रथम श्रावकाचार ग्रंथ रत्नकरण्ड श्रावकाचार में पू. आचार्य समंतभद्र देव ने सच्चे देव शास्त्र-गुरु के श्रद्धान को इतना अक्टूबर 2009 जिनभाषित 17
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