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मन की एकाग्रता, मन की शुद्धि का रखना मुनिगण के । हानिकारक कहा है? शायद इसीलिए कि वह कामक लिए उतना ही आवश्यक है, जितना मोक्ष-प्राप्ति के लिए | या स्वार्थपरायणी स्त्री अपने रूप, कटाक्ष, और मीठी कर्मों का निवारण। जिस साधु का मन ठिकाने नहीं है | वाणी में उलझा कर मनुष्य को तप-त्याग और शील उसे लताड़ देते हुए उन्होंने कहा है
से डिगाने में शीघ्र ही सफलता प्राप्त कर लेती है। किन्तु प्रयासैः फल्गभिर्मढ किमात्मा दण्डयतेऽधिकम। शक्यते न हि चेच्चेतः कर्तुं रागादिवर्जितम्॥ | आचार्यश्री ने बहुत लम्बे कथन में स्त्री-संसर्ग की बुराई
अर्थात्- हे मूढ प्राणी, जो अपने चित्त को रागादि और स्त्री-कामुकता को नरक की निशानी कहा है। इस से रहित करने में समर्थ नहीं है, तो व्यर्थ ही अन्य विकारदशा से छुटकारा पाने के लिए स्त्री के तन को क्लेशों से आत्मा को दण्ड क्यों दे रहा है? क्योंकि रागादिक | महान विष का घट कहा है। उसके एक-एक स्थान के मिटे बिना अन्य प्रयास करना निष्फल है। को विनाशकारी चक्रव्यूह कहा है। अगर कोई मुनि अपने
काम-लिप्सा के रोगी को, तो इन्होंने आड़े हाथों | तप और त्याग से डिगता है, तो उसका कारण उसके लिया है। विकार-भावों में लिप्त मनुष्य का स्त्री-संसर्ग | दुर्बल मन की चाल तो है ही, किन्तु स्त्री संसर्ग भी छूटना असम्भव है। और स्त्री-संसर्ग महान् दुखों की जड़ | एक महाविष है। अन्त में पंच-परमेष्ठी को स्मरण करते है। ना-मालूम आचार्यश्री ने स्त्री के संसर्ग को क्यों विशेष | हए आचार्यश्री ने ज्ञा णव (ग्रन्थ) को समाप्त किया है।
. वात्सल्यरत्नाकर (भाग २) से साभार
स्वयम्भूस्तोत्र : हिन्दीपद्यानुवाद
प्राचार्य पं० निहालचंद जैन, बीना
श्री सम्भवनाथ स्तवन हे सम्भव जिन, भव-भोग-रोग के निदान के कुशल वैद्य हो। सुख के सागर, भव्यों के शरणभूत हो। जैसे असाध्य रोगी को धन इच्छा से रहित वैद्य-जन, रोग हरणकर, शान्ति सुधा देता है।॥ ११॥ 'मैं' अंहकार ममकारों का अधिस्वामी, मिथ्या ज्ञान ज्ञेय से दूषित, जन्म जरा मृत्यु से पीड़ित, तुमने नश्वर जग का कर्म कलंक मिटाया। हे निरंजनी सम्भव जिनवर। मुक्ति का शान्ति सुधा वर दो॥ १२॥ हे सम्भव प्रभु-यह निश्चय बात कही तुमनेइन्द्रियसुख बिजली सा चंचल, तृष्णा का फैलाये अंचल, चौमुखी अग्नि सा बन प्रचण्ड,
यह ताप बना अभिशाप धरा धरणी का। जीवन सम्मोहित क्लेशों की करणी का॥ १३ ॥ बन्धहेतु है बद्ध आत्मा मोक्षहेतु है मुक्त आत्मा मोक्षमार्ग के हो व्याख्याता बेदखल किया एकान्त दृष्टि को। तुम शास्ता हो सर्वांग-निरूपण-कर्ता, अनेकान्त व स्यावाद शैली के॥ १४॥ पुण्य-प्रकर्ष कीर्ति स्तवन में, विवश इन्द्र स्तुति गायन में। क्या सागर का सारा जल छोटी सी अंजुलि में आ पाता? फिर मैं अज्ञानी-कैसे समर्थ हूँ? तब गुण स्तुति करने में। भक्ति का अनुराग भाव है, शाश्वत सुख का शुभाशीष दो॥ १५॥
अक्टूबर 2009 जिनभाषित 16
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