Book Title: Jinabhashita 2009 10 Author(s): Ratanchand Jain Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra View full book textPage 7
________________ होता, इसलिए अन्तरंग क्रोधादि शत्रुओं के निग्रह के लिए इन क्रियाओं में भी संक्लेश अर्थात् प्रमादरूप अयत्नाचार नहीं करना चाहिए। इन वचनों से सिद्ध है कि चतुर्विध हिंसा का सर्वथा परित्याग और चलने-फिरने, उठने-बैठने, सोने, आहार ग्रहण करने आदि क्रियाओं में यत्नाचार करने पर ही जीव प्रमत्तयोग से रहित होता है। ऐसा मुनि ही कर सकते हैं। हाँ, श्रावकों में जो डॉक्टर किसी मनुष्य का पूर्ण सावधानी से आपरेशन करता है, फिर भी उसे बचा नहीं पाता, उस डॉक्टर के प्रमत्तयोग का सद्भाव नहीं होता, अत एव हिंसा के पाप का भागी नहीं होता। यतः दानपूजादि धार्मिक क्रियाएँ आरंभ पर आश्रित होती हैं अर्थात् प्राणियों को पीड़ा पहुँचानेवाले, या प्राणियों के प्राणों का वियोजन करनेवाले व्यापार पर आधारित होती हैं ("आरम्भः प्राणिपीडाहेतुर्व्यापारः"सर्वार्थसिद्धि/६/१५, "प्राणिप्राण-वियोजनं आरम्भो णाम"-धवला /ष.खं./पु.१३/पृ.४६) और यह व्यापार बुद्धिपूर्वक (इच्छापूर्वक) किया जाता है, अतः इसमें प्रमत्तयोग अनिवार्यतः होता है। श्रावकों के लिए अल्प आरंभ एवं अनर्थदण्डविरति का उपदेश चूँकि श्रावक आरंभ का परित्याग नहीं कर सकता और उसमें जीवघात होता है, इसलिए 'पुरुषार्थसिद्धयुपाय' में श्रावक को अनिवार्य अल्प आरंभ करने और अननिवार्य (निप्रयोजन) आरंभ अर्थात् अनर्थदण्ड का परित्याग करने का उपदेश दिया गया है यथा स्तौकैकेन्द्रियघाताद्गृहिणां सम्पन्नयोग्यविषयाणाम्। शेषस्थावरमारणविरमणमपि भवति करणीयम्॥ ७७॥ अनुवाद- "इन्द्रियविषयों का मर्यादित उपभोग करनेवाले गृहस्थों को एकेन्द्रियजीवों के अल्पघात को छोड़कर शेष स्थावर जीवों के घात से विरत होना चाहिए।" स्थावरकायिक जीवों के अननिवार्य या निष्प्रयोजन घात को जिनागम में अनर्थदण्ड कहा गया है"प्रयोजनमन्तरेण वृक्षादिच्छेदनभूमिकुट्टनसलिलसेचनाद्यवद्यकर्म प्रमादाचरितम्।" (सर्वार्थसिद्धि/७/२१)। अनुवाद- "विना प्रयोजन के वृक्षादि का छेदना, भूमि का कूटना, पानी का सींचना आदि पापकार्य प्रमादाचरित नाम का अनर्थदण्ड हैं।" . श्रावक को तीन गुणव्रतों के अन्तर्गत अनर्थदण्ड से विरति का उपदेश दिया गया है। (रत्नकरण्डश्रावकाचार ३/२१)। उपर्युक्त निष्प्रयोजन हिंसा (अनर्थदण्ड) का निषेध गृहकार्य और धार्मिक कार्य दोनों में किया गया है, क्योंकि ऐसा उपदेश कहीं भी नहीं है कि धार्मिक कार्यों में निष्प्रयोजन या अननिवार्य हिंसा की जा सकती है।। हेलीकॉप्टर से पुष्पवर्षा में प्रमत्तयोग एवं अनर्थदण्ड पंचकल्याणकादि धार्मिक उत्सवों में हेलीकॉप्टर से पुष्पवर्षा करने या कराने में वायुकायिक और त्रसकायिक जीवों की बुद्धिपूर्वक प्रचुर हिंसा की जाती है। उसके विस्तृत पंखों के तीव्र भ्रमण से वायुमण्डल का बहुत दूर-दूर तक तीव्र गति से मन्थन होता है, जिससे असंख्य वायुकायिकजीवों का घात होता है और तीव्र ध्वनि से तथा पृथ्वी से ऊपर उठते समय एवं नीचे उतरते समय भूमि पर तीव्र आघात लगने से असंख्य पृथ्वीकायिक एवं त्रसकायिक जीवों की विराधना होती है। और यह बुद्धिपूर्वक की जाती है, इसलिए इसमें अनिवार्यतः प्रमत्तयोग होता है। वाययान और हेलीकॉप्टर का आविष्कार होने से पहले जिस परम्परागत मानवीय विधि से पष्पवर्षा की जाती थी और आज भी प्रायः की जाती है, उससे अल्पहिंसा में पुष्पवर्षा की विधि सम्पन्न हो जाती है। फिर भी हेलिकॉप्टर का प्रयोग कर पुष्पवर्षा के लिए प्रचुर हिंसा की विधि अपनाना निष्प्रयोजन होने से बहुत बड़ा अनर्थदण्ड है। -अक्टूबर 2009 जिनभाषित 5 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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