Book Title: Jinabhashita 2009 10
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 13
________________ गतांक से आगे जैम कर्म सिद्धान्त - स्व० पं० मिलापचन्द्र जी कटारिया इसी दृष्टान्त के जरिए यह भी समझ लेना चाहिए | फिर अन्य औदारिकादि शरीरों के धारण करने की जीव कि अगर दस तोले सोने में एक तोला चाँदी मिलाई को क्या आवश्यकता है? एक कार्मण शरीर ही काफी जावे, तो इस मेल से सोना आसानी से पहिचानने में | है। आ जाता है। किन्तु बीस तोले चाँदी में एक तोला सोना उत्तरः सूत्रकार उमास्वामी आचार्य ने "निरुपभोगमिलाया जावे, तो इस मेल में सोने की पहिचान बड़ी | मन्त्यम्" इस सूत्र के द्वारा बताया है कि कार्मण शरीर मुश्किल से होती है। तथापि उस मेल में भी सोना अपने | उपभोग रहित है और बाँधे हुए कर्मों का फल इस जीव गुण धर्म को नहीं छोड़कर अपने आपकी अलग सत्ता को शरीरग्रहण किये बिना नहीं मिल सकता है। क्योंकि रखता है। उसी प्रकार जब आत्मा हल्के कर्मोदय से | इन्द्रियों के इष्ट-अनिष्ट विषयों की प्राप्ति से संसारी मनुष्ययोनि में जाता है, तो वहाँ आत्मा की पहिचान आसानी जीवों को सख-दःख का अनुभव होता है और इन्द्रियों से हो जाती है। किन्तु जब घोर कर्मोदय से वह निगोद | का आधार शरीर है, इससे यह प्रकट होता है कि शरीर में पहुंच जाता है, तो वहाँ उसको अक्षर के अनन्तवें होने पर ही जीव को कर्मों का फल मिल सकता है। भाग मात्र ज्ञान रहता है। वहाँ उसकी ऐसी दशा हो जाती | माना कि कार्मण भी शरीर है, परन्तु उसके अन्य शरीरों है कि- यह जीव है कि नहीं यह पहिचानना भी कठिन | की तरह द्रव्येन्द्रियाँ नहीं हैं। इसलिये यह जीव, उसके हो जाता है। इतने पर भी आत्मा अपने गुण धर्म को | द्वारा इन्द्रियाँ विषय को ग्रहण नहीं कर सकता है। ऐसी नहीं छोड़कर वहाँ की अपनी अलग सत्ता बनाये रखता | हालत में आत्मा उस कार्मण शरीर के द्वारा तो कर्मों का फल भोग नहीं सकता है, इसलिये आत्मा को चार जीव के होनेवाले कर्मसंयोग की चर्चा से जैन- | गति के योग्य अलग-अलग शरीर ग्रहण करके कर्मों शास्त्रों का बहुत सा भाग भरा पड़ा है। जैनधर्म में जीव, | का फल भोगना पड़ता है। अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात | जैसे सीढ़ियों के बिना मकान के ऊपर की छत तत्त्व माने हैं। तत्त्वों के ये भेद भी इसी विषय को | का उपभोग नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार कार्मण लेकर हुए हैं। तमाम जैनशास्त्र प्रथमानुयोग, करणानुयोग, | शरीर के द्रव्येन्द्रियाँ न होने से अकेले उसके द्वारा भी चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग इन चार अनुयोगों में बँटे | जीव उपभोग नहीं कर सकता। हुए हैं। इन अनुयोगों का भी मुख्य आधार यही विषय | प्रश्न- अगर ऐसी बात है, तो कार्मण को जीव है। प्रथमानुयोग में जो कथायें लिखी मिलती हैं, उनका | का शरीर ही क्यों माना जावे? उद्देश्य ही यह बतलाया है कि उनमें से किन-किन ने उत्तर- उपभोग होना यह हेतु शरीर की सिद्धि क्या-क्या अच्छे-बुरे काम किये, जिनसे कर्मबन्ध होकर के लिये नहीं है। अन्यथा तैजस भी शरीर नहीं रहेगा उनको भवांतर में क्या-क्या अच्छा या बुरा फल मिला। क्योंकि वह भी निरुपभोग है। बल्कि तैजस तो कार्मण चरणानुयोग में जीवों के लिए वे आचार-विचार बताये | की तरह आत्मपरिस्पंदनरूप योग का निमित्त भी नहीं गये हैं, जिससे जीव कर्मों से छुटकारा पा सके। करणानुयोग | है, तब भी वह शरीर माना गया है। इससे यही फलितार्थ में कर्मों के अनेक भेद-प्रभेद और उनके स्वरूप का निकलता है कि जो विजातीय द्रव्य आत्मा में मिलकर विस्तार से वर्णन है। द्रव्यानुयोग में जीवादि द्रव्यों का | एकमेक (एकक्षेत्रावगाही) हो जाता है, उसी की गणना वर्णन है। इस प्रकार यह कर्मसिद्धांत का विषय जैनसाहित्य | यहाँ काय में की गई है। इस अपेक्षा कार्मण को भी में सर्वत्र गर्भित है। यह नहीं तो जैनधर्म ही नहीं है | जीव का काय कहा जा सकता है। और, तो क्या मोक्षमार्ग ही इसी विषय पर आधारित है। प्रश्न- जैनशास्त्रों में कर्मवर्गणाओं को पौद्गलिक प्रश्न: आत्मा के साथ बँधे हुए कर्मों को भी | माना है। उसी से कार्मण शरीर बनता है। इस मूर्त शरीर जैनशास्त्रों में कार्मण शरीर माना है और यह भी कहा | के साथ आत्मा का बन्ध नहीं हो सकता है। है कि वह सदा संसारी जीवों के साथ रहता है। तो । उत्तर- स्थूल औदारिक शरीर के साथ आत्मा का -अक्टूबर 2009 जिनभाषित 11 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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