Book Title: Jinabhashita 2009 10
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 9
________________ कार्यों के सम्पादन में अनिवार्य हो। इससे अधिक जीवघात का निषेध किया गया है। जयधवला (क.पा./ भाग १ / गा. १ / अनुच्छेद ८३ पृ. ९५ ) में उद्धृत निम्न गाथा में कहा गया हैसक्कं परिहरियव्वं असक्कणिज्जम्मि णिम्ममा समणा । तम्हा हिंसायदणे अपरिहरते कथमहिंसा ॥ ५० ॥ अनुवाद - " साधुओं को जो त्याग करने के लिए शक्य होता है, उसका त्याग करना चाहिए और जिसका त्याग करना अशक्य होता है, उससे ममत्व त्याग देना चाहिए। इसलिये हिंसा के जिस आयतन ( हेतु) का त्याग करना संभव है, उसका त्याग न करने पर अहिंसा का पालन कैसे हो सकता है?" इससे एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा के विषय में जिनशासन की नीति स्पष्ट हो जाती है। हेलीकॉप्टर से पुष्पवर्षा पंचकल्याणकपूजाविधि का अंग नहीं है। उसके बिना भी पुष्पवर्षा संभव है। इसलिए उसके द्वारा किये जानेवाले जीवघात का त्याग शक्य होने से त्याज्य है अहिंसा का पालन इसी प्रकार संभव है। हेलीकॉप्टर पुष्पवर्षा से जिनशासन की प्रभावना असंभव प्रभावना के नाम पर भी हेलीकॉप्टर द्वारा पुष्पवर्षा का औचित्य नहीं ठहराया जा सकता, क्योंकि उससे जिनशासन की प्रभावना संभव नहीं है। प्रभावना का लक्षण रत्नकरण्ड श्रावकाचार में इस प्रकार बतलाया गया है अज्ञानतिमिरव्याप्तिमपाकृत्य यथायथम् । जिनशासनमाहात्म्यप्रकाशः स्यात्प्रभावना ॥ १ / १८ ।। अनुवाद- "चारों तरफ फैले हुए अज्ञानान्धकार को उचित रीति से दूर कर जिनशासन के माहात्म्य (महिमा) का प्रदर्शन करना प्रभावना है।" जिनशासन के माहात्म्य को प्रदर्शित करने का अर्थ है जिनशासन में उपदिष्ट तप, ज्ञान आदि के अतिशय को जैनेतरों में प्रकट करना- "जिनशासनस्य माहात्म्यप्रकाशस्तु तपोज्ञानाद्यतिशयप्रकटीकरणम्।" (प्रभाचन्द्रटीका / र. क. श्रा./१/१८) । डॉ० पं० पन्नालाल जी साहित्याचार्य उक्त कारिका का आशय प्रकट करते हुए लिखते हैं- " अन्य लोगों के जिनधर्म-विषयक अज्ञान को दूरकर, उन्हें धर्म का वास्तविक ज्ञान कराना प्रभावना है। आज देव, शास्त्र और गुरु के स्वरूप को लेकर जनसाधारण में अज्ञान छाया हुआ है। रागी, द्वेषी देवों की आराधना की जाती है, वीतराग जिनेन्द्रदेव की नग्नमूर्ति का विरोध किया जाता है, जिनशास्त्रों में वर्णित अहिंसाधर्म का उपहास किया जाता है और नग्नमुद्रा के धारक निर्ग्रन्थ गुरुओं के नगरप्रवेश आदि पर आपत्ति की जाती है। इन सबका मूल कारण अज्ञानभाव है। सम्यग्दृष्टि जीव लोगों के इस अज्ञानभाव को दूरकर जिनशासन की महिमा को प्रकट करता है। साथ ही इस बात का ध्यान रखता है कि हमारा कोई आचरण ऐसा न हो कि उसके कारण जैनधर्म का अपवाद होने का प्रसंग आ जावे। वह सदा ऐसा आचरण करता है कि उसे देखकर लोग जैनधर्म के प्रति आस्थावान् होते हैं। सम्यग्दृष्टि पुरुष रत्नत्रय के तेज से आत्मा को प्रभावित करता है और दान, तप, जिनपूजा और विद्या के अतिशय से जिनधर्म की प्रभावना बढ़ाता है।" (विशेषार्थ / र. क. श्रा./१/१८) । Jain Education International मूलाचार ( गाथा २६४ ) की आचारवृत्ति में धर्म की प्रभावना के उपायों का वर्णन करते हुए कहा गया है- "त्रिषष्टिशलाकापुरुषों के चरित का व्याख्यान करके सिद्धान्त, तर्क, व्याकारण आदि की व्याख्या करके अथवा धर्म, पाप आदि के स्वरूप का कथन करके, अभ्रावकाश, आतापन, वृक्षमूल आदि हिंसादिदोषरहित बाह्य योगों के द्वारा, जीवदया और अनुकम्पा के द्वारा, तथा शास्त्रार्थ के द्वारा परवादियों को जीतकर एवं अष्टांग निमित्त, दान, पूजा आदि द्वारा धर्म की प्रभावना करनी चाहिए।" For Private & Personal Use Only 'अक्टूबर 2009 जिनभाषित 7 www.jainelibrary.org

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