Book Title: Jinabhashita 2006 10
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 6
________________ इसका दूसरा प्रमाण श्रीमद्भागवतपुराण में उपलब्ध होता है। उसमें कहा गया है कि भगवान् विष्णु ने राजा नाभि का प्रिय करने के लिए महारानी मरुदेवी के गर्भ में ऋषभदेव के रूप में अवतार लिया था, जिसका उद्देश्य था वातरशन (वायुरूप वस्त्रधारी-नग्न, दिगम्बर) श्रमण ऋषियों के धर्म (दिगम्बर जैनधर्म) को प्रकट करना- "बर्हिषि तस्मिन्नेव विष्णुदत्त! भगवान् परमर्षिभिः प्रसादितो नाभेः प्रियचिकीर्षया तदवरोधायने मरुदेव्यां, धर्मान् दर्शयितुकामो वातरशनानां श्रमणानामृषीणामूर्ध्वमन्थिनां शुक्लया तन्वावततार।" (भागवतपुराण/स्कन्ध 5/अध्याय 3/वाक्य 20/पृ. 207-208)। भगवान् ऋषभदेव चौदह मनुओं में से प्रथम स्वायम्भुव मनु (आप्टे संस्कृत-हिन्दी कोश-'मनु') की पाँचवीं पीढ़ी में (स्वायम्भुव मनु, प्रियव्रत, आग्नीध्र, नाभि और ऋषभ (भागवत पु./5/1-3) हुए थे। मनुस्मृति (1/79) के अनुसार एक मनु का काल (मन्वन्तर) मनुष्यों के 43, 20, 000 वर्षों का होता है। इसी को ब्रह्मा का 1/14 दिन मानते हैं, क्योंकि इस प्रकार के 14 कालों का योग ब्रह्मा का एक पूरा दिन होता है। इस समय हम सातवें मन्वन्तर में रह रहे हैं। (आप्टे संस्कृत-हिन्दी-कोष-'मनु')। इससे फलित होता है कि जैनधर्म के प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव आज से लगभग ढाई करोड़ वर्ष पहले हुए थे। हिन्दू-पुराणों के अनुसार जैनधर्म के प्राग्वैदिक होने का यह दूसरा प्रमाण है, क्योंकि इतिहासकारों की मान्यता है कि वैदिक मंत्रों की रचना ईसा पूर्व 2500 से आरंभ हुई थी। (दिनकर : संस्कृति के चार अध्याय/पृ. 25)। ऋग्वेद में भी भगवान् वृषभ (ऋषभ) तथा वातरशन मुनियों का उल्लेख हुआ है- 'ककर्दवे वृषभो युक्त आसीद्' (10/102/6), 'मुनयो वातरशनाः' (10/136/2-3)। इससे भी जैन तीर्थंकर ऋषभदेव एवं जैनधर्म की प्राग्वैदिकता सिद्ध होती है। भागवत पुराण में यह भी कहा गया है कि भगवान् ऋषभदेव के सौ पुत्र थे, जिनमें महायोगी भरत ज्येष्ठ एवं उत्तमगुणों से युक्त थे। उन्हीं के नाम से यह देश 'भारत' नाम से प्रसिद्ध हुआ- “अथ ह भगवानृषभदेवः ---- आत्मजानात्मसमानानां शतं जनयामास। येषां खलु महायोगी भरतो ज्येष्ठः श्रेष्ठगुण आसीद्येनेदं वर्ष भारतमिति व्यपदिशन्ति।" (भाग.पुरा./5/4/वाक्य 8-9)। लिंगपुराण (47/19-25) में भी यही बात कह गई है। इससे जैनधर्म उतना ही प्राचीन सिद्ध होता है, जितना प्राचीन, भारतवर्ष का 'भारत' नाम है। और चूँकि भगवान् वृषभदेव और उनके ज्येष्ठ पुत्र महायोगी भरत प्राग्वैदिक महापरुष हैं. अतः भारतवर्ष का 'भारत' नाम भी प्राग्वैदिक है। महाभारत के उल्लेखों से भी जैनधर्म की प्राग्वैदिकता सिद्ध होती है। ब्रह्मर्षि उत्तङ्क अपने गुरु वेद को गुरुदक्षिणा देने के लिए गुरुपत्नी की इच्छानुसार राजा पौष्य की महारानी के कुण्डलयुगल माँगने जाते हैं। महारानी दे देती हैं, किन्तु सावधान करती हैं कि इन कुण्डलों पर नागराज तक्षक की आँखें गड़ी हुई हैं, अतः आप सावधानी से लेकर जाना। उत्तङ्क कुण्डल लेकर चल पड़ते हैं। रास्ते में वे देखते हैं कि एक क्षपणक (दिगम्बर जैन मुनि) उनके पीछे-पीछे आ रहा है। कुछ दूर जाकर उत्तंक एक सरोवर के किनारे कुण्डल रख देते हैं और स्नान के लिए जल में प्रविष्ट हो जाते हैं। तभी वह क्षपणक तेजी से आता है और दोनों कुण्डल लेकर भाग जाता है- "एतस्मिन्नन्तरे स क्षपणकस्त्वरमाण उपसृत्य ते कुण्डले गृहीत्वा प्राद्रवत्।" उत्तंक स्नान-तर्पण कर उस क्षपणक का पीछा करते हैं और उसे पकड़ लेते हैं। पकड़े जाने पर वह क्षपणक का रूप त्याग देता है और अपना वास्तविक (तक्षक नाग का) रूप धारण कर पृथ्वी के बहुत बड़े बिल मे घुस जाता है- “गृहीतमात्रः स तं रूपं विहाय तक्षकस्वरूपं कृत्वा सहसा धरण्यां विवृतं महाबिलं प्रविवेश।" (महाभारत/आदिपर्व/तृतीय अध्याय/पृ. 57)। उत्तङ्क जनमेजय के समकालीन थे। जनमेजय परीक्षित के पुत्र, अभिमन्यु के पौत्र तथा अर्जुन के प्रपौत्र थे। ये सभी द्वापरयुग में विद्यमान थे। हिन्दूमतानुसार सृष्टि काल चार युगों में विभाजित किया गया है : सत् या कृत युग (अवधि 17, 28,000 वर्ष), त्रेता (12,96,000 वर्ष), द्वापर (8,64,000 वर्ष) और कलियुग (4,32,000 वर्ष) । वर्तमान युग कलियुग है। (आप्टे संस्कृत-हिन्दी कोष-'युगम्') । कलियुग का आरंभ ईसापूर्व 3102 वर्ष की 13 फरवरी को हुआ था। (आप्टे संस्कृत-हिन्दी-कोश-'कलि')। इससे स्पष्ट है कि वैदिकयुग कलियुग में आरंभ हुआ था, लगभग 2500 ई. पूर्व से (देखिए, दिनकर : संस्कृति के चार अध्याय/पृ. 25)। और क्षपणकों (दिगम्बर जैन मुनियों) का अस्तित्व द्वापरयुग में भी था। यह इस बात का हिन्दूमान्य ऐतिहासिक प्रमाण है कि जैनधर्म प्राग्वैदिक धर्म है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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